कविता : मैं साहित्य का नन्हा कुकुरमुत्ता हूँ
मैं साहित्य का नन्हा सा कुकुरमुत्ता कवयित्री हूँ मुझे पेड़ बनते देर ना लगेगी पर शेष बचूँगी तक ना! चाटुकारता
Read Moreमैं साहित्य का नन्हा सा कुकुरमुत्ता कवयित्री हूँ मुझे पेड़ बनते देर ना लगेगी पर शेष बचूँगी तक ना! चाटुकारता
Read Moreझटकूँ जब अपनी ही जुल्फों को भीगीं बूँदे जब इधर उधर उड़ती हुई करती जब स्पर्श मुझे! कुछ चेहरे को
Read Moreजब मैं छोटी थी बच्ची थी चोक से सिलेट पर लिखा करती थी कभी पेंसिल से लिख रब़र से मिटाया
Read Moreये पीड़ा वो पीड़ा जाने कितनी पीड़ाओं में व्यक्तित्व दबा है! देह पीड़ा में रोगों की छाया से शरीर कुंद
Read Moreजब मैं छोटी थी फूलों की खुशबू मुझे इत्र से ज्यादा भाँती थी उन दिनों पापा के साथ पुलिस थाना
Read Moreमेरे हिस्से में रात आई रात का रंग काला है इसमें कोई दूजा रंग नहीं मिला इसलिए सदा सच्चा है
Read Moreयहाँ भी वहाँ भी जहाँ भी देखती हूँ वहाँ तुम ही तुम नज़र आते हो ये मेरी नजरों का
Read Moreफूदक फदूक के घर आँगन में ची ची ची चहकती जब गौरेया नन्हें मुन्ने भागते इसके पीछे आज हाथ से
Read Moreफूलों पर सो रही हूँ तुम्हारा सीना समझकर फूलों की डाली पर झूल रही तुम्हारा कंधा समझकर फूलों को
Read Moreअकेली जिन्दग़ी भी कोई जिन्दग़ी है ! अपने साये से भी घुटन होती है अपनी लाश को खुद के ही
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