स्वास्थ्य

सेहत, सबके लिए

( पहले देखिए  शाँति, सबके लिए )

मज़दूरी, खेती, व्यापार और फ़ैक्ट्रियों में प्रोडक्शन, हम इनमें से कुछ भी नहीं कर सकते, अगर समाज में शाँति नहीं है। अगर लोग शाँति के साथ सड़कों पर आ-जा नहीं सकते, तो वे कोई रचनात्मक काम भी नहीं कर सकते। ऐसे में हमारे बच्चे स्कूल भी नहीं जा सकते और न ही वे कुछ पढ़ सकते हैं। हमारे बच्चे हमारा भविष्य हैं। अगर समाज में शाँति नहीं हैं तो उनका कोई भविष्य नहीं है और हमारा भी। अभी लोग सड़कों पर चल-फिर रहे हैं, यह अच्छी बात है। इसीलिए समाज के क्रिया-कलाप चल रहे हैं लेकिन ये लोग अशाँत, उद्वेलित, व्यथित और आक्रोशित मन लेकर समाज में घूम रहे हैं। इसीलिए रोज़ाना हत्या, बलात्कार, दंगे या विवाद की घटनाएं घटती रहती हैं।
औरत-मर्द कोई सुरक्षित नहीं है। बच्चे तक यौन दुर्व्यवहार से लेकर अपहरण और हिंसा के शिकार हैं। उनके साथ ऐसा घर से लेकर स्कूल तक हर जगह किया जा रहा है। स्कूल के भारी बस्ते भी उन्हें तनाव दे रहे हैं, शाँति नहीं। बच्चों को पढ़ाया जा रहा है लेकिन उनकी शाँति को नष्ट करके। अब ये कुछ बनने वाले नहीं हैं सिवाय एक मरीज़ के। दौलत की हवस को हरेक धर्म-मत ने एक मनोविकार माना है।
आज मां-बाप अपनी दौलत की हवस अपने बच्चों के ज़रिए पूरी कर लेना चाहते हैं। वे अपने बच्चों को ढेर सारी दौलत कमाते हुए देखना चाहते हैं। इसके लिए वे उन्हें ऐसे स्कूलों में पढ़ाते हैं जहां उन्हें नोट छापने वाली मशीन में बदल दिया जाता है। इस तरह बच्चे के बचपन के साथ उसकी इन्सानियत को भी उसके अवचेतन में कहीं गहरे दफ़न कर दिया जाता है। उसे एक नई अजनबी शख्सियत (व्यक्तित्व) का मास्क दे दिया जाता है, जिसे वह कभी नहीं पहचान पाता लेकिन वह इसका बोझ ढोते रहने के लिए श्रापित होता है क्योंकि दूसरे भी यही कर रहे होते हैं। जो काम ज़्यादा लोग कर रहे होते हैं, वह समाज का चलन मानकर सामान्य समझ लिया जाता है। ज़्यादातर लोग बीमार पड़ते हैं और वे दवा के नाम पर ज़हर खाकर ठीक होते हैं तो इसे सामान्य समझ लिया जाता है। जानने वाले जानते हैं कि समाज के ज़्यादातर लोग श्रापित हैं।
वरदान का अभाव श्राप को जन्म देता है। जिसने वरदान को गंवा दिया है, वही श्रापित है। यह एक प्राकृतिक नियम है। जो लोग प्रकृति के नियम को जानते हैं, वे वरदान पाने और उसे सहेजे रखने की विधि भी जानते हैं। यह विधि स्कूल-कॉलिजों के सिलेबस में सिरे से ही नहीं है। इन्सान जिस प्रकृति में रहता है, उसी के नियमों की अवहेलना करता है। सारी बीमारियों का यही एकमात्र कारण है। इन्सान को सेहतमंद और हर तरह से ख़ुशहाल जीवन जीना है तो उसे प्रकृति की अनुकूलता में जीने का तरीक़ा सीखना होगा।
प्रकृति के सारे नियमों का मूल शाँति है। शाँति का अभाव इन्सान के मन को अशाँत करता है और फिर यह बेचैनी उसके व्यवहार में झलकती है तो उसे मनोरोग कहते हैं और अगर यह भाव शरीर के दर्पण में झलकती है तो उसे शाराीरिक रोग कह दिया जाता है। रोग का मूल इन्सान के मन में है, उसके शरीर में रोग का केवल लक्षण (अलामत) मात्र है। यह एक सनातन सत्य है लेकिन जो लोग यह नहीं जानते, उन्हें बहुत बड़ा डॉक्टर माना जाता है। वे इलाज के नाम पर ज़हर खिलाते-पिलाते रहते हैं और रोग के लक्षण दबाते रहते हैं। रोग का मूल मन में अपनी जड़ें गहरी करता रहता है और फिर वह पहले से भयंकर लक्षण प्रकट करता है। डॉक्टर उसे फिर अपने इंजेक्शन से दबा देते हैं और अगर वह उससे नहीं दबा तो रोगी के बीमार अंग को ही काटकर फेंक देते हैं। रोग का मूल फिर भी वहीं पड़ा रहता है। उस बीमार अंग का क़ुसूर सिर्फ़ इतना था कि वह रोगी को ध्यान दिला रहा था कि मन में विकार आ गया है, इसकी शुद्धि (तजि़्कया ए नफ़्स) कर लो। मन और शरीर की शुद्धि कर ली होती तो रोग का मूल और उसके लक्षण, सब तिरोहित हो चुके होते।
आज यह एक साइंटिफ़िक फ़ैक्ट है कि 95 प्रतिशत बीमारियों का कारण तनाव है। तनाव, अशाँति का दूसरा नाम है और शाँति का अभाव अशाँति है। हक़ीक़त यह है कि लोगों को होने वाली 95 प्रतिशत बीमारियाँ वास्तव में ‘पीस डेफ़िसिएन्सी सिन्ड्रोम’ हैं।
शाँति के भाव से दूसरों को शाँति बाद में मिलती है, सबसे पहले उसे शाँति मिलती है, जिसके दिल में यह भाव जागता है। शाँति के भाव को अपने दिल में जगह देने वाला दूसरों से पहले अपना भला करता है। शाँति इन्सान को रोगों का शिकार होने से बचाती है और बरसों से जड़ें जमाए रोगों की जड़ें खोदकर निकाल देती है।
हम शाँति के भाव के साथ जीते हैं तो अपने बच्चों को एक सेहतमंद माँ, बाप, चाचा, मामा, दादा, दादी, नाना और नानी देते हैं। मुस्कुराहट की तरह शाँति का भाव भी तेज़ी से फैलता है। हमसे यह भाव हमारे बच्चों में जाएगा, तो वे भी हेल्दी लाइफ़ जी सकेंगे। शाँति हमारी नस्ल की हिफ़ाज़त की गारंटी है।
शाँति हमारी विरासत है तो फिर हम अपनी आने वाली नस्लों को इससे वंचित करने का अपराध क्यों करें?

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