और पेड़ बहुत रोया….
मेरी इन दो भुजाओँ मेँ,
मेरी पत्तियोँ की छाओँ मेँ,
दो मासूम कलियोँ को दरिँदोँ ने मसल डाला,
मैँ देखता रह गया,
मेरी भुजाएँ मेरी टहनियां,
जिसपर टंगी दो बेटियां,
मानवता के निर्मम हत्यारोँ का शिकार हो गयीँ,
सपने संजोने की उमर मेँ बलात्कार हो गयीँ।
मैने पिता के हृदय को अकस्मात महसूस किया,
दृश्य ये दारुण देख देख क्रोध का विष केवल पिया,
मेरा भी हृदय है मुझे भी हृदयाघात हुआ,
क्षणभर को मैँ बिलखता रहा मन मेरा भी बलात हुआ।
मेरी रुह भी रोती रही बस तमाशा देखता रहा,
पेड होने की अपनी हताशा देखता रहा।
मैँ सजीव होकर निर्जीव सा खडा ही बस रह गया,
क्षण भर मेँ प्राणोँ का घट बच्चियोँ का बह गया।
इतना कहकर मुझसे पेड बिलखता ही रहा,
सारी घटना का गवाह चुपचाप सिसकता ही रहा,
जैसे अपनी ही आँखोँ के आगे अपनी लाडलियोँ को हो खोया,
कुछ इस तरह वो आँसू बहाता पेड बहुत रोया।
______सौरभ कुमार दुबे
बहुत अच्छी कविता .
बहुत मार्मिक रचना है. हमारा दुर्भाग्य कि ऐसे दृश्य भी देखने पड़ते हैं.