माँ
वो जो टूटे
छत के नीचे,
कचरोँ के ढेर से जलते चूल्हे
मेँ एक पुराना
पीतल का
पतीला रखकर
उबलते पानी को,
बनता भोजन बताती है।
काम के बहाने
फटे वसनोँ मे ही
लकडियां बीनने जंगल
को जाती है।
चंद भिक्षा मेँ मिले
चाँवल के दानोँ को
पीसकर,
दूध बता अपने बेटे
को पिलाती है।
जो अकेली है पर
बच्चे की खातिर
कमजोर नहीँ,
समाज की
दुर्भावनाओँ
को लाख बार
झेलती
पर चुपचाप ही सहती
है,
अपने लाल को
भूखे पेट
जब नीँद नहीँ आती
तो
मीठी कहानियोँ
का घोल
पिला पेट
भरकर सुलाती है,
मैँ उस माँ को
अपने हृदय की अनंत गहराईयोँ से
अनंत बार नमन करता हूँ
कि वो मेरी माँ है…!
_____सौरभ कुमार दुबे
माँ का महत्त्व वही जानते हैं जो माँ से गहरे रूप में जुड़े हुए होते हैं. माँ से बड़ा संसार में कोई नहीं है. इस कविता में माँ के महत्त्व को अच्छी तरह दिखाया गया है.
माँ पर लिखी गई कविता हमेशा ही टीस दे जाती है …अच्छी कविता …