नेपथ्य
मन के स्पंदन करते तार,
क्रंदन करती झनकार,
कुछ डूबते से
उठते से मन को,
फिर घेर रहा अंधकार,
घनेरा तमस फैला,
भटकता मन अकेला,
पथ के आवर्तोँ से हारा,
कब होगा नवउजियारा।
तब किलकारी लेती भोर उठी,
ले विश्वास पूरब के छोर उठी,
प्रकाश तिमिर को चीरता बढा,
अंबर पर सूरज ने उल्लास भरा,
मन पंछी फिर उडकर,
उस नेपथ्य को देखकर,
उठा चला आगे बढा।।
___सौरभ कुमार दुबे
अच्छी कविता.