कविता : सदियों से सदियों तक
सदियों पुराना प्रेम
जब आज की गलियों में
भटक रहा था
मै सोचता रहा तुमसे इसका
जिक्र फिर से करू
पुछू तुमसे क्या तुमने देखा है
कभी महसूस किया है
चाँदनी रात की दुधिया उजास में
मन का गीलापन जज्ब हो जाता है
तन को उसदम किसी मरहम
की जरूरत नहीं होती
आँखे टकटकी लगाए बस ताकती रहती है
सफर है जो गहराता जाता है
यादे जवान होने लगती है
भूलने लगता है मन गिले-शिकवे तमाम
सच कहूँ तो अपना नाम भी सिर्फ नाम का ही होता है उसवक्त
क्या गजब तिलीस्म रचता है प्रेम
लब खामोश रहते है आँखे चुप नहीं होती
सदियों से प्रेम युहीं भटक रहा है
भ्रम की देहलीज पर, बिना आशियाने के
मुझमे और तुझमे
बस युही
सदियों से सदियों तक ।।
प्रेम की गहराई . बहुत खूब .
वाह ! वाह !!