किसकी खातिर
देख कर वफायें उसकी, उसकी वफाओं पे मर गए
मांग कर दुआएं मरने कि,ताबीर से मुकर गए|
बेबस फिरती थी बेआस मेरी ये आँखें चेहरे दर चेहरे
चाँद आया इक शाम गली में, इक चेहरे पे हम ठहर गए|
अपने शब-ओ-रोज़ में उसने भी खुदा को पूजा तो बहुत होगा
करके इक खता हम,एक चेहरे को अपना खुदा कर गए|
निकले तो थे परवाने हम किसी शम्मा में फना होने को
देख के रौनकें उनके चेहरे की, उनको छू कर गुज़र गए|
ख्वाब बने दरिया ख्याले ग़ज़ल होने लगी
उसकी जुल्फों को जो शब ,उसके चेहरे को सेहर कर गए|
बड़ी उलझन थी सो अपने लबो को उनके लबो पे धर गए
इज़हार जो न आये हमे, लफ्ज़ जो मायनो से मुकर गए|
फिर हैरत से देखती रही मेरी ओरे वो भर शाम
जुगनू उसकी आँखों के कुछ मेरी पलकों पे ठहर गए|
“अधृत” अब न जीता मैं तो क्या करता तुम्ही कहो
क्या कहता जो वो पूछ लेती कहो किसकी खातिर तुम मर गए|
कविता अच्छी है , जवानी के सपने देखना तुमारा हक है .
हा हा हा
क्या पता सपने हकीकत के धरातल पे उतार पाउँगा या नहीं.. खैर शुक्रिया
आनंद जी , आप की कविता से ही पता चल जाता है , कि आप दिल के बहुत अछे इंसान हैं . मुझे याकीन है कि आप अपने सपने हकीकत के धरातल पर पौह्न्चाने में कामयाब हो जायोगे .
बहुत खूब !
शुक्रिया सर जी! उम्मीद है मेरी बाकि नज्मे भी पसंद आएँगी आप लोगो को…
वाह डाक्टर साहब .
भैया आप भाई से संबोधन करे ज्यादा ख़ुशी होगी| वैसे डॉक्टर साहब बुरा नहीं है…. 😛