आज नदी तट पर बनी दो कविताएँ
२३ जून २०१४ सोमवार हंवर नदी तट पर (कनाडा)
1.
आनन्द में अभिभूत हो, कुछ सृष्टि जग में हो गयी;
आलोक्य का आलोक लख, अनुभूति अद्भुत हो गयी ।
आश्वस्त मन शाश्वत निरख, सुरमय गगन को तक गया;
प्रकृति छटा का परश पा, चिन्मय चकोरी बन गया ।
बतखों का वृत हिय कबूतर, सरिता निकट तट तक गया;
सुरभित सुमन की सहज पीड़ा, प्राण लख समझा किया ।
पुष्पों जड़ों की अमित शोभा, भूमि तल की सौम्यता;
हर पात बज्राघात संयत, लता की उत्तम घटा ।
‘मधु’ मौनता द्रढ़ सूक्ष्मता, अंतः प्रकाशित कर गयी;
हर घड़ी की बहु-रूपिता, चेतन विरूपित कर गयी ।
2.
विदग्धित मन प्राण मेरे, धरा को देते सहारा;
तरंगित यह ज्योति मंडल, आज जीवन को निहारा ।
अजब सी आकुति है आकर, कभी व्याकुल किये चलती;
मेघ मन्द्रित नभ डुबाकर, कभी दृष्टि वृष्टि करती ।
पात हर आपात का सुर, बता/ दिखा जाता चखा जाता;
गात की हर भंगिमा का, बृहत नक़्शा दिखा जाता ।
स्वरूपित हर ताल लय में, पवन की प्रिय मन्द गति में;
छन्द जो भी उमड़ आता, सुघड़ सृष्टि को बनाता ।
‘मधु’ मनोरथ सफल होता, रथ विधाता का दिखाता;
श्वाँस की हर ओउ्म ध्वनि को, वही कर जाता इशारा ।
कविता अच्छी है लेकिन शब्द कुछ आसान से हों तो मेरे जैसा भी कविता का मज़ा ले सकता है .
हर आध्यात्मिक कविता प्रभु प्रवाह में एक निर्झर है और शब्द जल कणों की फुहार वत हैं । जो भाव व शब्द आये प्रकट हो गये । भाव दशानुसार वे सरल भी हो सकते हैं । कवि माध्यम मात्र है । शब्द भूमा के होते हैं । भाव का आनन्द लीजिये । अन्य सरल कविताएँ http://www.GopalBaghelMadhu.com द्वारा देखी जा सकती हैं ।
वाह ! वाह !! अति सुन्दर !
आनन्द लेने व देने के लिये हृदय से साधुवाद
धन्यवाद , गोपाल जी .