कविता

कविता – वह प्राणवायु सी

वह भी एक बहती हुई हवा की तरह थी

कानों के पास आकर फुसफुसाती हुई

ठंडे  झकोरे की तरह सिहराती हुई

दुपट्टा सम्भाल कर गुजर जाती थी ,ठीक बगल से

कभी चुपचाप

कभी सूखे पत्तों की खडखड़ाहट की तरह

मुझ पर झल्लाती हुई  …….

और , कभी –कभी सुखद स्पर्श से सहलाती हुई

बालों की लटें  बिखराए हुए

ऐसे बरस कर निकल जाती

जैसे हवा के झोंकों के साथ काली बदलियाँ

पानी से भीगी हुई

मोम सी मुलायम….

और रूई के फाहों सी मचलती हुई…

लेकिन, मोती जैसी तीखी बूंदों की बौछार , चेहरे पर मारती हुई

वह हवा पर ही सवार हो जाती थी

मेरे प्रीति  के पंखों को आकाश देने के लिये

वह सचमुच हवा ही थी

मेरे जैसे पहाड़ से टकरा कर, उसकी भावनाएं पलट जाती थी

आँखों की नमी के साथ

किसी रूखे – सूखे कोने में बरसने के लिये

भिगो देती थी धरती के किसी टुकड़े को

अपने आँचल की तरह

मेरे निष्ठुर हृदय के कोने को भी

ताकि उनमे उग सके

प्रेम के मरुस्थल में भी कुछ अंकुर

जीवन सृष्टि के लिये

काश ! मैं उसे समझ सकता

उसे महसूस कर सकता …अब भी

जबकि तूफान सूखे पत्ते उड़ाते हुए

रिश्तों की जड़ें उखाड़ते हुए

भावनाओं की नदी बहाते हुए

बरसकर – भिगोकर

वक्त पर धूल की परतें चढ़ाकर जा चुका है

मुझे यादों के झरोखे में बैठा हुआ देखते हुए

बस ,घुलते रहने के लिये

सूखते रहने के लिये

उस गर्म हवा के अंधड़ की तरह

जो रेत  के पहाड़ तो खड़े कर देता है

पर , उससे टकराकर कोई हवा बदलियों को नही ला पाती

मेरे मन के किसी सूखे कोने को तर-बतर करने के लिये

सुगन्धित झकोरों से , प्रेम की फुहारों से…

आखिर , वह हवा ही थी

जो मेरे मन के रेतीले अंधड़ में कहीं खो गयी है

निःशब्द , कहीं चुप मार गयी है

मेरी सांसों में प्राणवायु की तरह

अरविन्द कुमार साहू

सह-संपादक, जय विजय

2 thoughts on “कविता – वह प्राणवायु सी

  • Gopal Baghel

    सुन्दर भाव प्रवाह

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर कविता. इसे पढ़ते हुए एक खूबसूरत अहसास होता है.

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