उपन्यास : शान्तिदूत (पहली कड़ी)
वासुदेव कृष्ण की आँखों में नींद नहीं थी। इतिहास एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा था। विगत के कालखंड का आगत के कालखंड से संधि का समय सामने था। शताब्दियों से भरतखंड पर एकछत्र शासन करने वाला कुरुवंश अपना अस्तित्व बचाने के लिए नियति से जूझ रहा था। कुरु साम्राज्य का पहले विभाजन हुआ और अब उसके अस्तित्व पर ही संकट आ गया था। कुरु साम्राज्य के दोनों भाग अपनी-अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए युद्ध के मैदान में आ खड़े हुए थे। कृष्ण अच्छी तरह समझते थे कि यह युद्ध अवश्यंभावी है, क्योंकि प्रकृति की सारी शक्तियाँ सभी ओर से संसार को बलपूर्वक युद्ध में धकेल रही थीं।
कृष्ण सोच रहे थे कि यह युद्ध अगर हुआ, जो कि अपरिहार्य हो गया है, तो सारा संसार इसकी चपेट में आ जायेगा और जो भयंकर विनाश होगा, उसकी कल्पना से ही हृदय दहल जाता है। इस विनाश का एक भयावह चित्र भगवान वेदव्यास ने कौरवों की राजसभा में खींचा था, ताकि वे युद्ध से विरत हो जायें और पांडवों को उनका न्यायपूर्ण अधिकार दे दें। परन्तु जैसी कि वेदव्यास को आशंका थी, कौरवों ने उनकी बात को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया था। इस सबसे कृष्ण भी भली प्रकार अवगत थे।
कुरुवंश और उससे भी पूर्व भरत वंश का पूरा इतिहास कृष्ण की स्मृति में कौंध गया। दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम से चला यह वंश शताब्दियों ही नहीं सहस्राब्दियों से सम्पूर्ण भारतवर्ष पर शासन कर रहा था। एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी के राजाओं ने सफलतापूर्वक इस साम्राज्य का संचालन किया था। सम्पूर्ण पृथ्वी पर उनकी धाक थी। भरतवंश के सम्राटों के मुख से निकला हर शब्द संसार के प्रत्येक शासक के लिए बाध्यकारी आदेश होता था।
सम्राट शान्तनु तक भरतवंश का यह गौरव अक्षुण्ण रहा। शान्तनु के समय में और उसके बाद भी किसी अधीनस्थ शासक को उनके सामने सिर उठाने का साहस नहीं हुआ था। लेकिन पारिवारिक समस्याओं ने इस श्रेष्ठ परिवार को और फिर उसके साम्राज्य को ग्रहण लगा दिया। सबसे पहले गंगा ने एक विलक्षण वचन के अधीन शान्तनु के साथ विवाह करना स्वीकार किया। शान्तनु ने अधिक विचार किए बिना वह वचन दे दिया। उनकी पत्नी ने एक के बाद एक अपने सात पुत्रों को जन्म लेते ही गंगा में बहाकर मृत्यु देवता को समर्पित कर दिया। अपने वचन से बँधे हुए सम्राट शान्तनु विवश होकर अपने पुत्रों की हत्या होते देखते रहे। परन्तु आठवां पुत्र होने पर उनका धैर्य चुक गया और उन्होंने अपना वचन भूलकर गंगा को उसे नदी की धारा में बहाने से रोक दिया। इस पर गंगा सदा के लिए उनको छोड़कर चली गयी।
कृष्ण को लगा कि कुरुवंश के विनाश का बीज उसी दिन बो दिया गया था, जब एक नारी को पत्नी रूप में पाने के लिए शान्तनु ने एक अनुचित वचन दे दिया था। गंगा को खोने के बाद शान्तनु प्रायश्चित स्वरूप अकेले ही जीवन व्यतीत करने लगे और अपने आठवें परन्तु एक मात्र जीवित पुत्र राजकुमार देवव्रत की शिक्षा-दीक्षा में व्यस्त रहने लगे। उनकी आशा के अनुसार उनका पुत्र हर प्रकार से योग्य सिद्ध हो रहा था और वे उसे भावी सम्राट के रूप में देख रहे थे, जो कि स्वाभाविक था।
परन्तु नियति ने कुछ और ही तय कर रखा था। अपनी आयु के चौथे चरण में जब वे राजकुमार देवव्रत को हस्तिनापुर का सिंहासन सौंपकर वन को प्रस्थान करने की सोच रहे थे, तो एक धीवर कन्या सत्यवती को देखकर उनकी सोयी हुई कामाग्नि जागृत हो गयी। वे उसको अपनी रानी बनाने को उद्यत थे और सत्यवती को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। लेकिन सत्यवती के पिता की शर्त को सुनकर उनके पैरों तले की भूमि खिसक गयी। वे अनुचित वचन देने की पीड़ा एक बार भोग चुके थे, इसलिए वैसी ही गलती दूसरी बार करने को प्रस्तुत नहीं थे, क्योंकि ऐसा करना उनके गुणी और सर्वथा सुयोग्य पुत्र देवव्रत के प्रति घोर अन्याय होता।
लेकिन यह नियति की क्रूरता ही थी कि जिस गलती को दोहराने से शान्तनु बच गये थे, वही गलती उनके पुत्र देवव्रत ने अपने पिता के मोह में कर दी। वे अपने पिता को उनकी इच्छित नारी सत्यवती दिलवाने के लिए एक ऐसा वचन दे बैठे, जो अन्ततः कुरुवंश के सर्वनाश का कारण बना। वास्तव में कुरुवंश का दुर्भाग्य उसी दिन से प्रारम्भ हो गया था, जब हर प्रकार से योग्य और समर्थ होते हुए भी देवव्रत ने कभी विवाह न करने और सिंहासन पर न बैठने की प्रतिज्ञा कर डाली थी। इतना ही नहीं सभी आशंकाओं को दूर करने के लिए उन्होंने सदैव हस्तिनापुर के राजा का साथ देने और उसकी रक्षा करने का भी वचन दे डाला था।
सत्यवती से अपने सिंहासन का योग्य उत्तराधिकारी प्राप्त करने की शान्तनु की आशा पूरी नहीं हुई। वृद्धावस्था में अपनी तरुणा सुन्दरी पत्नी से उन्हें जो दो पुत्र प्राप्त हुए- चित्रांगद और विचित्रवीर्य – वे प्रारम्भ से ही मानसिक और शारीरिक रूप से रोगी थे। उनमें से चित्रांगद तो अपनी मूर्खता के कारण एक द्वन्द्वयुद्ध में मारा गया और विचित्रवीर्य पूरी तरह अयोग्य था। लेकिन राजा और राज्य की रक्षा करने के अपने वचन के पालन के लिए भीष्म विचित्रवीर्य को सिंहासन पर बैठाकर उनकी ओर से राज्य की देखभाल करने लगे।
कृष्ण को ये सभी बातें उनके पिता वसुदेव ने तब बतायी थीं जब वे कंस की मृत्यु के बाद कारागार से मुक्त हुए थे। बाद में कृष्ण के गुरु संदीपनि ने भी इन बातों की पुष्टि की थी और कुछ नई बातें भी बतायी थीं।
(जारी…)
बचपन की सुनी हुई महाभारत , आज आप के नावल के ज़रिये फिर पड़ने को मिली . धीरे धीरे आप का सारा नावल पडूंगा . लिखने का ढंग अत्ति अच्छा है . मेरा पड़ना उस पर क्रिटिसिज्म नहीं होगा बल्कि पुरातन ग्रन्थ को अधियन करना है . उस समय के हालात को आज से तुलना नहीं करूँगा किओंकि यह एक इल्लग विषय है . मुझ को तो हज़ारों वर्ष पुराने ग्रन्थ को जानना है जिस के लिए आप को वधाई दूंगा .
आभार, भाई साहब. आप इसको आलोचनात्मक दृष्टि से भी पढ़े. यदि कहीं गलत लगे, तो मुझे अवश्य बताएं. इससे मुझे प्रसन्नता होगी.
shanti doot ki pahali kadi achchi lagi
बहुत बहुत धन्यवाद, बंधु.
महाभारत के युद्ध का मुख्य कारण कृष्ण की महत्वकांक्षा थी।
दरअसल कृष्ण उस समय के भारत के सबसे शक्तिशाली वंश कुरु वंश को समाप्त कर के अपना यदुवंस का राज्य स्थापित करना चाहते थे । इसी लिए उन्होंने यह षड्यंत्र रचा और भाइयो में फूट दलवाई।
केशव जी, आपका यह निष्कर्ष बिल्कुल गलत है. कृष्ण का इसमें कोई स्वार्थ नहीं था.
bahut sunder hai sir
धन्यवाद, बंधु.
excellent !!! Love it !
आभार, देवी जी.
बहुत ही शानदार विजय सर, आशा है दूसरी कड़ी जल्द आएगी.
आभार, कमल जी. इसकी नई कड़ी हर तीसरे दिन आएगी. ज्यादा लिखने का समय मेरे पास नहीं है.