संवेदना
गहरे सिंधु सा गहराता जीवन
मन की नौका खाए हिलोर
भावुकता की भीषण लहरों में
दिखता नहीं आशा का छोर
पथ पर जिसने देखें हैं फूल
कैसे जाने क्या होते शूल
रंग उड़ गया जिसके जीवन का
उसके हाथों रह जाती धूल
सब संवेदना मेरे मन की
रह गयी वेदना इस जीवन की
कपोल कल्पना झूठी थी सब
सुधि न रही सुख अर्जन की
कभी स्नेह नहीं माँगा था पर
मिला मुझे जीवन से बढ़कर
अब फिर ढूंढ रहा उस क्षण को
जिसे पाया था मैंने मर मरकर
सपने सारे राख हो गए
मिटटी में मिल खाक हो गए
नींद उड़ गयी रातो के संग
शत्रु जुड़ जुड़ लाख हो गए
पथ पर पुष्प मिले नहीं थे
कभी सहसा ही खिले नहीं थे
हमने पत्थर ही पत्थर थे तोड़े
पर्वत थे वो किले नहीं थे
हार मिली तो आंसू ना बोये
कभी टूटकर नहीं थे रोये
किन्तु स्वजनो ने हाथ जो छोड़ा
हम तिमिर में जाकर खोये
इसी तिमिर ,तम से उभरेगी
नए पथ की उज्ज्वल भोर
भावुकता की भीषण लहरों में
दिखता नहीं आशा का छोर,,!!
_____सौरभ कुमार दुबे
सुन्दर कविता !