उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (तीसरी कड़ी)

विराट नगर में अपने कक्ष में लेटे हुए कृष्ण की विचार श्रृंखला आगे बढ़ी।

जब राजमाता सत्यवती ने समझ लिया कि उनको भीष्म की ओर से कोई उत्तराधिकारी मिलने वाला नहीं है, तो उन्हें प्राचीन नियोग प्रथा का स्मरण हुआ। यह प्रथा असाधारण संकट काल में संतानोत्पत्ति के लिए प्रयोग की जाती थी और अब हस्तिनापुर में वह संकट आ गया था, इसलिए इसका प्रयोग करना अनुचित न होगा। विचित्रवीर्य की दोनों विधवा रानियां शारीरिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ थीं और सन्तानोत्पत्ति के योग्य थीं। इसलिए राजमाता ने उनसे नियोग करने के योग्य व्यक्ति की खोज करने का निश्चय किया।

सबसे पहले उनका ध्यान भीष्म की ओर गया। वे कुरुवंश के ही थे और नियोग के लिए सर्वथा उचित थे। परन्तु उनकी प्रतिज्ञा को देखते हुए सत्यवती का साहस उनसे निवेदन करने का नहीं हो रहा था। वे जानती थीं कि ऐसा कोई भी निवेदन प्रारम्भ में ही ठुकरा दिया जाएगा। किसी बाहरी व्यक्ति से नियोग कराकर वे कुरुवंश को कलंक लगाना नहीं चाहती थीं। बहुत विचार करने के बाद उन्हें अपने कुमारावस्था के पुत्र कृष्ण द्वैपायन की याद आयी। वह अब वेदव्यास के नाम से सुप्रसिद्ध था और अत्यन्त सम्मानित ऋषि बन चुका था। यद्यपि 5 वर्ष का होते ही वह अपने पिता ऋषि पाराशर के साथ ही चला गया था और उसके बाद सत्यवती उसको देख भी नहीं पायी थी। परन्तु वे जानती थीं कि मेरे बुलाने पर वह तुरन्त दौड़ा हुआ आएगा।

यह विचार करके पहले उन्होंने भीष्म से मंत्रणा की। भीष्म वेदव्यास जी से परिचित थे और उनका सम्मान करते थे। परन्तु उनको यह ज्ञात नहीं था कि वे राजमाता सत्यवती के ही पुत्र हैं। यह जानकर उनको सुखद आश्चर्य हुआ और उन्होंने नियोग हेतु वेदव्यास को आमंत्रित करने के लिए अपनी सहमति दे दी। भीष्म की सहमति पाकर माता सत्यवती ने वेदव्यास को बुलाने के लिए संदेश भेज दिया।

बहुत दिनों के बाद माता का सन्देश पाकर वेदव्यास को अवश्य आश्चर्य हुआ होगा। लेकिन अपनी माता से अलग होकर पिता के साथ जाते हुए उन्होंने माता को वचन दिया था कि जब भी तुम्हें आवश्यकता होगी, मैं आ जाऊँगा। सत्यवती ने इसका कोई संकेत नहीं किया था कि वे उनको क्यों बुला रही हैं, अतः वे तत्काल अकेले ही चले आये। सत्यवती ने उनको अपनी विधवा पुत्रवधुओं से नियोग करने का आदेश दिया। वे अपनी माता का आदेश नहीं टाल सके और नियोग के लिए तैयार हो गये।

भगवान वेदव्यास यों तो बहुत विद्वान् थे और ऋषियों में भी श्रेष्ठ ऋषि के रूप में उनका सम्मान किया जाता था, परन्तु रंग में वे पूरी तरह काले थे। उनका नाम भी इसीलिए ‘कृष्ण’ पड़ा था। उनकी काया भी लम्बी और हृष्टपुष्ट थी, जो उनको एक डरावना रूप देती थी। इसलिए यह स्वाभाविक था कि नियोग के लिए उनके पास जाने पर भय से थर-थर काँपती हुई अम्बिका ने आँखें बन्द कर लीं और अम्बालिका पीली पड़ गयी। उनकी एक दासी भी पुत्र प्राप्ति की लालसा में वेदव्यास के पास गयी। उसे कोई डर नहीं लगा। नियोग क्रिया समाप्त हो जाने के बाद भगवान वेदव्यास अपने आश्रम को लौट गये।

नियोग क्रिया से कुरुवंश को तीन सन्तानें प्राप्त हुईं। अम्बिका के पुत्र धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे, अम्बालिका के पुत्र पांडु का शरीर पीले रंग का था और वे देखने में रोगी लगते थे। दासी के पुत्र विदुर पूरी तरह सामान्य थे। वैसे वे तीनों बलवान और गुणी थे। भीष्म ने तीनों की शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबंध किया। विदुर को भी राजपुत्र जैसा ही सम्मान दिया जाता था, भले ही वे एक दासी के पुत्र थे। धीरे-धीरे वे तीनों भाई वयस्क हो गये। इसी बीच राजसिंहासन पर प्रतीक रूप में राजमाता सत्यवती बैठती थीं और भीष्म उनकी ओर से राजकार्य चलाते थे।

सोचते-सोचते कृष्ण के मन में भीष्म के प्रति फिर सम्मान उमड़ आया। कितनी कठोर तपस्या कर रहे थे भीष्म। राजकार्य में पूरी तरह रत रहते हुए भी उससे पूरी तरह विरत। एक क्षण के लिए भी उनके मन में स्वयं राजा बनने की इच्छा जागृत नहीं हुई। वे राज्य का संरक्षण करके अपने पिता शान्तनु और विमाता सत्यवती को दिये गये वचन का पालन कर रहे थे।

जब तीनों राजकुमार वयस्क हो गये, तो भीष्म को उनके विवाह की चिन्ता हुई। धृतराष्ट्र का विवाह हुए बिना उनके छोटे भाइयों का विवाह करना अनुचित होता, इसलिए वे सबसे पहले धृतराष्ट्र का विवाह करना चाहते थे। परन्तु जन्मांध होने के कारण स्वाभाविक रूप से कोई भी राजकुमारी उनसे विवाह के लिए तैयार न होती। इसलिए एक बार फिर भीष्म ने अपनी शक्ति का वैसा ही उपयोग किया, जैसा विचित्रवीर्य का विवाह कराने में किया था। वे गान्धार के राजा सुबल के पास पहुंचे, जिनकी पुत्री गांधारी सर्वगुण सम्पन्न सुन्दरी थी। भीष्म ने स्पष्ट शब्दों में राजा सुबल से अपने अंधे भतीजे धृतराष्ट्र के लिए उनकी पुत्री का हाथ मांगा। यह सुनकर आतंकित हो गये राजा और उनके युवराज शकुनि मना न कर सके। उनकी पुत्री ने जब सुना कि जन्मांध से उनका विवाह कराया जा रहा है, तो उसने भीष्म से बदला लेने के लिए अपनी आँखों पर भी पट्टी बाँध ली। अब भीष्म कुछ नहीं कर सकते थे। वे गांधारी के साथ हस्तिनापुर लौट आये और धृतराष्ट्र से गांधारी का विवाह करा दिया।

कृष्ण सोचने लगे कि गांधारी का यह कार्य उचित नहीं था। पति-पत्नी एक दूसरे के पूरक होते हैं। यदि एक में कोई कमी है, तो दूसरे के द्वारा उसकी पूर्ति की जाती है। परन्तु पति अंधा होने पर पत्नी भी जान-बूझकर अंधी हो जाये, यह तो कोई बुद्धिमानी की बात नहीं हुई। इसमें स्पष्टतया प्रतिशोध की झलक आती है। लेकिन जिस परिवार में सब कुछ विचित्र और अकल्पनीय घट रहा हो, वहाँ एक और अकल्पनीय घटना का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

सौभाग्य से पांडु और विदुर के विवाह में कोई कठिनाई नहीं हुई। पांडु वीर थे, अपने पीतवर्ण के बाद भी देखने में आकर्षक लगते थे। महान् कुरु साम्राज्य के उत्तराधिकारी तो वे थे ही। इसलिए एक स्वयंवर में राजा कुंतिभोज की पालिता पुत्री पृथा (कुंती) ने पांडु को वरण कर लिया। कुछ समय बाद मद्र देश की राजकुमारी माद्री के साथ भी उनका दूसरा विवाह हुआ। इसी प्रकार राजकुमार विदुर का विवाह भी एक सुयोग्य कन्या के साथ कर दिया गया।

समय आने पर हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर धृतराष्ट्र को बैठाने की तैयारियां की जाने लगीं। लेकिन मंत्रणा के समय विदुर ने स्पष्ट कहा कि प्राचीन परम्पराओं और नियमों के अनुसार कोई जन्मांध राजा नहीं हो सकता, इसलिए धृतराष्ट्र इसके योग्य नहीं थे। सभी लोग विदुर के ज्ञान का आदर करते थे, अतः उनकी राय से सभी सहमत हो गये। अतः धृतराष्ट्र की जगह उनके छोटे भाई पांडु को राजा बनाया गया, जो इसके सर्वथा योग्य थे।

राजा बनने के बाद पांडु पहले दिग्विजय के लिए गये और वहां से लौटने केे कुछ समय पश्चात् ही वे अपनी दोनों रानियों के साथ वनविहार के लिए चले गये। जाते समय वे राज्य का दायित्व अपने बड़े जन्मांध भाई धृतराष्ट्र को सौंप गये और विदुर को महामंत्री बना गये, ताकि राजकाज सामान्य रूप से चलता रहे। वे शीघ्र ही लौटने का आश्वासन देकर गये थे, लेकिन वह दिन कभी नहीं आया।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

2 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (तीसरी कड़ी)

  • केशव

    1- यदि भीष्म चाहते तो किसी बहार के व्यक्ति को नियोग के लिए बुलाना ही नहीं पड़ता क्यों की भीष्म ने आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा की थी सम्भोग न करने की नहीं। पर इसका एक कारण था शायद भीष्म संतान उत्पन्न करने में असक्षम थे जिसे छुपाने के लिए उन्होंने प्रतिज्ञा का आवरण ओढ़ लिया था ।
    2- यदि धृत को अंधे होने के कारण पहले गद्दी के योग्य नहीं समझा गया था तो बाद में क्यूँ? बाद में भी तो धृत को उन्ही मंत्रियो के सहारे राज्य चलाने का निर्णय दिया गया जो पहले थे। तब जेष्ट होने के नाते पहले क्यूँ नहीं सौप दी गई थी गद्दी धृत को?
    दरअसल भीष्म और विदुर यह जानते थे की पंडू एक कटपुतली मात्र रहेगा उनके लिए और राज्य की असली सत्ता उन्ही दोनों के पास रहेगी क्यों की पंडू इतना काबिल नहीं था की राज्य को संभल सके और फिर वह अपनी बीमारी से परेशान रहता था इसलिए सत्ता के मजे भीष्म और विदुर ही लेते। जबकि धृत के पास सत्ता जाने से उनकी नहीं चलती क्यों की धृत खुद भी नीतिवान तो था ही , सुयोधन भीष्म और विदुर से ज्यादा सत्ता सँभालने के काबिल था । सुयोधन भीष्म से अधिक वीर और निर्भीक था और निति में विदुर से ज्यादा नीतिवान । जिस कारण भीष्म और बिदुर धृत के हाथो सत्ता नहीं जाने देना चाहते थे क्यों की धृत के गद्दी पर बैठते ही सुयोधन उनकी नहीं चलने देता और उन्हें सत्ता का सुख नहीं मिलता। इसी लिए विदुर और भीष्म ने पहले धृत को गद्दी से दूर रखा पर बाद में मज़बूरी के कारण उन्हें धृत को सत्ता सौपनी पड़ी।

    • विजय कुमार सिंघल

      १. अगर भीष्म खुद नियोग करते तो आप जैसे आलोचक ही उन पर यह आरोप लगाते कि वे खुद राजा नहीं बने, पर अपने पुत्र को राजा बनाने के लिए अपने दोनों छोटे भाइयों को मरवा दिया और उसकी विधवाओं से बच्चे पैदा कर दिए. भीष्म नपुंसक थे इस बात का आपके पास क्या प्रमाण है?
      २. धृत राष्ट्र को कभी भी सिंहासन के योग्य नहीं माना गया. पांडू ने वन जाते समय प्रतेक रूप में उनको अधिकार सौंपा था. राजकाज सब विदुर चलाते थे और भीष्म साम्राज्य की रक्षा करते थे. भीष्म को राज्य का कोई मोह नहीं था, अन्यथा वे स्वयं सिंहासन पर बैठ जाते. वे केवल अपनी प्रतिज्ञा से बंधे हुए थे, इसलिए राज्य की रक्षा कर रहे थे, नहीं तो वे बहुत पहले छोड़कर चले जाते.

      ३. विदुर ने भी सत्ता का कोई मजा नहीं लिया था. वे अपने भाइयों की जिम्मेदारियां उठाये हुए थे. वे बहुत साधारण घर में रहते थे और उनकी आर्हिक स्थिति भी साधारण ही थी. इसका प्रमाण यह है कि कृष्ण को खिलने के लिए भी उनके घर में केवल साधारण फल और भोजन था.
      ४. दुर्योधन कितना वीर था इसका प्रमाण यह है कि वे सब कई बार युद्धों में पराजित हुए थे- पहले द्रुपद से, गन्धर्वों से, भीम से, अर्जुन से.
      ५. दुर्योधन अगर नीतिवान होता, तो जुए के धोखे से पांडवों का राज्य न हड़पता. नीतिवान होता तो कृष्ण का ५ गाँव देने का प्रस्ताव मानकर पूरा राज्य ले लेता और अपने वंश को विनाश से बचा लेता. पर उसे तो युद्ध चाहिए था और परिणाम हुआ विनाश.
      आपके सारे आरोप गलत ही नहीं, सरासर गलत हैं. केवल विरोध के लिए लिखे गए हैं, अन्यथा आपके पास अपने आरोपों के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं है.

Comments are closed.