प्रगतिशीलता की दशा और दिशा
देश विकास कर रहा है। विगत साठ-पैंसठ वर्षों से देश ने विकास करते हुए, प्रगति के अनेक आयामों को छुआ है। देश की जनसंख्या का विकास हुआ। सबने कहा जनसंख्या-विस्फोट हुआ। भई! मैं तो चकरा जाता हँ! विस्फोट होने पर जनसंख्या बढ़ती है, या जनसंख्या बढ़ने पर विस्फोट होता है? हाँ, पिछले दिनों जयपुर, अहमदाबाद, और बंगलौर में विस्फोट हुआ था तो, जनसंख्या, जरूर कम हो गयी थी!
देश के जनसंख्या की विकास में महत्वपूर्ण योगदान देनेवाली नारियों की संख्या, जनसंख्या-विस्फोट के बाद भी कम हुई। विकासशील देश में दहेज के कारण मरनेवाली नारियों की संख्या में भी विकास हुआ। हमारी प्रगति तो उस ऊँचाई तक आ पहुँची कि कन्याओं को हमने गर्भ में ही मारने की कला में प्रगति कर ली। फलस्वरूप प्रगतिशील और विकासशील भारत में भ्रूण-हत्या की ललित-कला में प्रगति हुई।
उपलब्ध आँकडे़ बताते हैं कि भारत अब बलात्कार के मामलों मे आत्मनिर्भर हो गया है। और संभवतः विकसित भी। पहले विदेशी-आक्रमणकारी हमारे देश की नारियों का बलात्कार करते थे। पर अब हमारे देश की कुछ पुरुषार्थी आत्माओं ने विदेशी बालाओं का बलात्कार कर, दुनिया को यह बता दिया कि हम भी किसी से कम नहीं!
प्रगतिशील देश में दूल्हों के रेट में भी प्रगति हुई। बढ़ती मँहगाई का प्रभाव दूल्हों की कीमतों पर भी पड़ा है। जो माल पहले हजारों में बिकता था, लड़की का बाप अब उसे खुशी-खुशी लाखों में खरीदता है। मँहगाई भी प्रगति पर है, जिसके कारण भिखारियों के स्तर में सुधार आया। चार-आठ आने या रूपया मिलने पर अब वे अपमानित महसूस करते हैं। एक दिन तो एक भिखारी शंका व्यक्त कर रहा था कि ‘क्या, ये वही देश है, जहाँ महाराज बली, कर्ण, और राजा हरिश्चन्द्र जैसे दानवीर हुए थे! मँहगाई ने इतनी प्रगति है कि अब वह आसमान नहीं, अंतरिक्ष छू रही है।
देशवासियों की धार्मिक भावनाएँ भी अब काफी विकसित हो गई। तीज-त्योहारों पर पुलिसवालों की बढ़ती संख्या तथा पेरा मिलटरी फोर्स के जवानों को देखकर सहज ही लोगों की धार्मिक आस्थाओं का पता लग जाता है। कभी त्योहारों का पता, मदार हो गए हैं, ऐसा सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों का कहना है। उन्हें अब पहले की तरह रिश्वत नहीं माँगना पड़ता। जनता खुद ही खुश होने पर चढ़ावा दे देती है। लोगो में ऊँच-नीच, जाति-पाति, रंगभेद लगभग समाप्त हो गया है। सब मिलकर खाते हैं। इस मामले में कोई ‘अछूत’ नहीं रहा। इस प्रकार सांप्रदायिक सद्भाव भी बढ़ा है।
लोगों में देशभक्ति की भावना का विकास हुआ है। देशी पी-पीकर शहीद होते हैं अब वे। जिस कारण समाज में शराबियों का सम्मान बढ़ा है, और लोगों में समाजवादी भावना बान बढ़ा है। सरकार को आशा है कि इस कदम से बाल-विवाह जैसी कुप्रथा पर काफी हद तक रोक लग जाएगी। इसे ही कहते हैं-काँटे से काँटा निकालना!
स्वतंत्रता के पहले देश में नेताओं का उत्पादन कम होता था। हम सौ-दो-सौ सालों में गाँधी, नेहरू, सुभाष, पटेल जैसे कुछ ही महान नेता पैदा कर सके। अब तो देश में परिवार से लेकर राष्ट्रीयस्तर तक के महान नेता पैदा होने लगे हैं। पहले नेता ‘महान’ होने में बड़ा समय लगाते थे, जिससे बड़ी राष्ट्रªीय क्षति होती थी। किंतु, अब देश ने प्रगति की और आलम ये है कि ‘पप्पू’ पाँच साल में ही ‘मम्मी’ की छत्रछाया में ‘महान’ हो जाता है। वह पिछड़ा भारत था-जब नेता देश के लिए जेल जाते थे। प्रगतिशील भारत में नेता जेल से ही चुनाव जीत जाते हैं।
प्रगतिशील भारत में लोगों में प्रकृति प्रेम भी बढ़ा है। शहर की सीमा पर लगे वनों को काटकर, लोग अपने बनाए गए बंगले में छोटे-छोटे गमलों मे छोटे-छोटे पौधे उगाते हैं। कृषि प्रधान भारत में किसानों की संख्या काफी बढ़ रही थी, इसलिए किसान अब उसे संतुलित करने हेतु आत्महत्या कर रहे हैं।
समाचार वाचक अभी बता रहा था कि, देश लगातार प्रगति की ओर अग्रसर है। अगर प्रगतिशील या विकासशील होने पर देश का चित्र ऐसा है, तो जरा सोचिए-विकसित होने पर क्या होगा? आइए, जरा अविकसित भारत का इतिहास खोजें।
करारा व्यंग्य ! तथाकथित प्रगतिशीलता पर आपने अच्छा प्रहार किया है.