उपन्यास : शान्तिदूत (पांचवीं कड़ी)
कृष्ण फिर पुरानी यादों में खो गये।
मथुरा से सभी यादवों को निकालकर सुरक्षित द्वारिका पहुंचाना बहुत कठिन कार्य था। परन्तु अनेक यादव युवकों के साहस और योजना से इसमें सफलता मिली। वहां पहुंचकर उन्होंने राहत की सांस ही ली थी कि पांडवों के जलकर मर जाने का संकट पैदा हो गया। इससे यादव सीधे प्रभावित हुए थे, क्योंकि पांडवों की माता कुंती यादवों की ही पोषिता पुत्री थीं। शोक प्रकट करने के लिए जब यादव हस्तिनापुर गये, तो महामंत्री विदुर ने कृष्ण को एकान्त में बताया कि पांडव वारणावत् के षडयंत्र से बचकर जीवित हैं और राक्षसों के क्षेत्र में रह रहे हैं, जहाँ दुर्योधन के गुप्तचर उनकी हवा भी नहीं पा सकते। यह जानकर कृष्ण को बहुत प्रसन्नता हुई और वे पांडवों को प्रकट कराने के उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। पांडवों के जीवित होने की बात को विदुर ने पितामह भीष्म और मातामही सत्यवती से भी छिपा रखा था। शायद उनको डर था कि तब बात गुप्त नहीं रह पायेगी और पांडवों के जीवन को बहुत खतरा बढ़ जाएगा।
उस समय तक कृष्ण को बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त हो गयी थी। उन्होंने कंस वध के अतिरिक्त भी कई ऐसे अलौकिक कार्य किये थे कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में उनकी ख्याति हो गयी थी। इसी कारण कंस के पुराने सहयोगियों और समर्थकों में से अधिकांश उनसे ईर्ष्या भी करने लगे थे, जिनमें कंस का श्वसुर और मगध का सम्राट जरासंध तो था ही, शिशुपाल, रुक्मी जैसे कई राजकुमार भी थे। वे स्वाभाविक रूप से दुर्योधन के साथी थे।
तभी द्वारिका के यादवों को सूचना मिली कि पांचाल नरेश द्रुपद अपनी पुत्री कृष्णा का विवाह वासुदेव कृष्ण से करना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने कृष्ण को पांचाल आमंत्रित किया है। द्रुपद की पुत्री कृष्णा के असाधारण सौन्दर्य के बारे में कृष्ण ने भी सुन रखा था। यह भी किंवदन्ती थी कि उसका जन्म आग से हुआ है। उससे विवाह करना किसी भी राजा या राजकुमार के लिए बहुत सौभाग्य की बात होती। अतः कृष्ण ने पांचाल जाने में अधिक सोच-विचार नहीं किया।
जब वे पांचाल पहुंचे, तो महाराजा द्रुपद ने उनका अपनी पुत्री से प्रत्यक्ष परिचय कराया और कृष्ण के सामने उससे विवाह करने का स्पष्ट प्रस्ताव रखा। इस प्रकार स्पष्ट प्रस्ताव पाने पर और द्रुपद के उतावलेपन पर कृष्ण को आश्चर्य हुआ। उन्होंने द्रुपद का वास्तविक उद्देश्य जानना चाहा। कृष्ण को यह ज्ञात था कि द्रुपद और द्रोणाचार्य बचपन के मित्र थे और बाद में उनकी मित्रता में गहरी दरार आ गयी थी। उनको यह भी ज्ञात था कि द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य पांडवों के द्वारा द्रुपद को पराजित किया था और उनके राज्य का आधा भाग अपने अधिकार में कर लिया था। इससे कृष्ण को संदेह हुआ कि महाराजा द्रुपद का वास्तविक उद्देश्य कदाचित द्रोणाचार्य से अपने अपमान का बदला लेना है।
जब उन्होंने द्रुपद से पूछा कि आर्यावर्त के सम्पूर्ण राजाओं और राजकुमारों को छोड़कर आपने मुझे ही अपनी जामाता बनाने के लिए क्यों चुना है, तो द्रुपद ने स्पष्ट बता दिया कि उनका मुख्य उद्देश्य द्रोणाचार्य से अपने अपमान का बदला लेना है और वे आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ योद्धा को अपना जामाता बनाकर इस इच्छा को पूरी करना चाहते हैं।
यह जानकर कृष्ण को बहुत क्षोभ हुआ। उनके जीवन का उद्देश्य धर्म की स्थापना करना था, न कि क्षुद्र व्यक्तिगत अहंकारों की संतुष्टि करना। इसलिए उन्होंने महाराजा द्रुपद से स्पष्ट कह दिया कि मैं किसी के व्यक्तिगत प्रतिशोध का अस्त्र या उपकरण नहीं बनना चाहता। इसलिए आपकी पुत्री से विवाह करने में मैं असमर्थ हूँ।
कृष्ण की ओर से यह स्पष्ट अस्वीकार पाने पर द्रुपद को बहुत निराशा हुई। उनकी सभी योजनायें मिट्टी में मिली जा रही थीं। उनकी दृष्टि में उस समय सम्पूर्ण आर्यावर्त में कृष्ण के अतिरिक्त कोई योद्धा नहीं था, जो द्रोण को पराजित कर सके। उनका अपना पुत्र भले ही द्रोणाचार्य का शिष्य रह चुका था और महारथी भी था, परन्तु द्रोण को पराजित करना उसके वश की बात नहीं थी, यह भी वे जानते थे। जो एक मात्र योद्धा द्रोणाचार्य को पराजित कर सकता था, वह अर्जुन वारणावत् में जलकर मर चुका था। अब कृष्ण द्वारा भी अस्वीकार कर देने पर उनके सामने निराशा का घोर अन्धकार छा गया था।
द्रुपद की निराशा को देखकर कृष्ण दुःखी हुए और उनकी सहायता का निश्चय कर लिया। उन्होंने द्रुपद को समझाया कि भले ही मैं स्वयं आपका जामाता नहीं बन सकता, लेकिन कृष्णा मेरी बहिन के समान है और उसके लिए योग्य वर पाने में मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ, जो आपकी इच्छा भी पूरा कर सकेगा। उन्होंने द्रुपद को सलाह दी कि वे कृष्णा के लिए एक स्वयंवर आयोजित करें और उसमें एक बहुत कठिन प्रतियोगिता रखें। जो उस प्रतियोगिता की शर्त को पूरा करेगा, वह आर्यावर्त का सर्वश्रेष्ठ योद्धा होगा। उसको आप जामाता बनाकर अपना उद्देश्य पूरा कर सकते हैं।
द्रुपद को कृष्ण की सलाह में आशा की किरण दिखायी दी। उनके पूछने पर कृष्ण ने कहा कि वह प्रतियोगिता धनुर्वेद की बहुत कठिन प्रतियोगिता होनी चाहिए। जो सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होगा, वही उसको पूरा कर पायेगा।
यह सलाह देते हुए कृष्ण के मन में यह बात भी थी कि यह स्वयंवर पांडवों के सामने आने का सबसे अच्छा अवसर होगा, जब सम्पूर्ण आर्यावर्त के राजा वहां एकत्र होंगे, निश्चय ही उनमें कृरु राजकुमार भी होंगे। लेकिन सबके सामने पांडवों के प्रकट होने पर दुर्योधन आदि कुछ नहीं कर पायेंगे और पांडवों को उनका अधिकार मिल जाएगा।
द्रुपद को कृष्ण की राय अच्छी लगी। उन्होंने एक विख्यात धनुर्विद्या विशारद को धनुर्वेद की बहुत कठिन प्रतियोगिता की रचना करने के लिए कह दिया। प्रतियोगिता की तिथि भी निश्चित कर दी और सभी राज्यों को निमंत्रण भेज दिये।
जब द्रोपदी को कृष्ण द्वारा दी गयी इस सलाह का पता चला, तो वह बहुत प्रसन्न हुई। यद्यपि वह स्वयं कृष्ण से विवाह करती, तो अधिक संतुष्ट होती, परन्तु एक भाई की तरह कृष्ण जैसा हितैषी पाकर भी वह स्वयं को बहुत सौभाग्यशालिनी मान रही थी। तभी से उसने कृष्ण को भैया कहना प्रारम्भ कर दिया था।
पांचाल से लौटकर द्वारिका जाते हुए कृष्ण कुछ समय हस्तिनापुर में भी रुके और विदुर के माध्यम से उन्होंने पांडवों तक यह सन्देश पहुंचाने का प्रबंध कर दिया कि स्वयंवर में उनको भाग लेना है और उचित अवसर पर प्रकट होना है।
निर्धारित दिन स्वयंवर हुआ। उसमें कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम और चचेरे भाई युयुधान (सात्यकि) के साथ सम्मिलित हुए थे। उन्होंने पहले ही यह निश्चय कर लिया था कि वे प्रतियोगिता में भाग नहीं लेंगे। उनको मंच के पास ही सम्मानपूर्वक उचित स्थान दिया गया था। कृष्ण ने स्वयंवर में आये हुए दर्शकों को ध्यान से देखा तो सभी पांडवों को पहचान लिया, यद्यपि उससे पूर्व उन्होंने कभी भी किसी पांडव को देखा नहीं था। परन्तु महामंत्री विदुर ने उनका जो विवरण दिया था, उसके अनुसार पांडवों को पहचानने में कृष्ण को कोई कठिनाई नहीं हुई।
जैसी कि आशा थी स्वयंवर की शर्त को कोई भी राजा या राजकुमार पूरा नहीं कर सका। अंगराज कर्ण इसको पूरा कर सकता था, परन्तु सूतपुत्र होने के कारण उसको अनुमति नहीं मिली। एक के बाद एक प्रतियोगियों के असफल होते जाने से द्रुपद की निराशा बढ़ती जा रही थी। उनके साथ ही द्रोपदी की भी निराशा बढ रही थी और वह बड़ी व्यग्रता से कृष्ण की ओर देख रही थी। तभी युधिष्ठिर के निर्देश पर ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए आगे आये। राजा द्रुपद की अनुमति से उन्होंने लक्ष्य भेद किया और द्रोपदी ने सहर्ष उनको जयमाला पहना दी।
(जारी…)
कृष्ण को शांति दूत क्यों कहा गया है?
कृष्ण को शान्ति दूत कहा नहीं जाता, लेकिन मैं कह रहा हूँ, क्योंकि वे सिर पर आ खड़े भयानक युद्ध को टालने के लिए शान्ति प्रस्ताव लेकर दूत बनकर हस्तिनापुर गए थे. वैसे इस प्रश्न का पूरा उत्तर आपको पूरा उपन्यास पढ़ने पर मिल जायेगा.