साईं बाबा : जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी
हाल के दिनों में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द जी की ओर से साईं बाबा के बारे में जारी कुछ बयानों से एक ऐसा विवाद उठ खड़ा हुआ है, जिसका दार्शनिक दृष्टि से न कोई अंत है और न ही धार्मिक दृष्टि से कोई समाधान। शंकराचार्य जी की बात मौलिक रूप से सही प्रतीत हो सकती है, मगर सवाल ये है कि उनके कहने से यदि करोड़ों हिंदुओं की भावनाएं आहत होती हैं, जिनकी साईं बाबा में भी आस्था है, तो उसे सही कैसे ठहराया जा सकता है। हिंदुओं का संस्थागत खेमा भले ही साईं भक्तों की प्रतिक्रिया के बाद सनातन धर्म के नाम पर लामबंद होता नजर आ रहा है, मगर साईं बाबा में आस्था रखने वाला आम हिंदू भला कहां मानने वाला है।
असल में यहां यह उक्ति सटीक प्रतीत होती है कि जांकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। आस्था और श्रद्धा तो हमारी संस्कृति और धर्म के मूल में है। हमारे यहां तो कण-कण में भगवान की बात कही गई है, जिसे जिस रूप में भगवान दिखाई देता है, उसे उसी रूप में पूजने के लिए वो स्वतन्त्र है। आम आदमी न तो शास्त्र जानता है और न ही उसने कभी वेद पाठ किया है। उसे क्या पता कि शास्त्र की व्यवस्था क्या है? उसे यह भी भान नहीं कि धार्मिक तकनीकी में किसे भगवान मानना चाहिए और किसे नहीं। वह इतना भर जनता है कि उसकी जिंदगी में कहां से उसकी आस पूरी होती है। जहां से भी उसकी अपेक्षा पूरी होती है, वह वहां ही सिर झुका देता है। अगर किसी की मनोकामना किसी संत विशेष या गुरू विशेष की कृपा से पूरी होती है और वह उसे भगवान मानने लगता है तो उसे कैसे रोका जा सकता है। शास्त्रों में वर्णित अवतारों की बात अलहदा है, मगर रामकृष्ण परमहंस के लिए समस्त बंगाल व पूर्वी भारत में ‘ठाकुरÓ का ही सम्बोधन है। चैतन्य को ‘महाप्रभु चैतन्यÓ कहा गया, रविदास को ‘भगवान रविदासÓ कहा गया। महान संतों की बात तो छोड़ दीजिए हमारे यहां तो जीव-जन्तुओं, प्राकृतिक-स्वरूपों तक को पूजने की परंपरा और प्रथा रही है और वो आज भी कायम है। हमारे धर्म-ग्रन्थों में तो कुत्ते को भी ‘भैरव (महादेव के शरीर से उत्पन्न अंश) माना गया है और ऐसी भी मान्यता है कि अगर आप कुत्ते को कुछ खिला रहे हैं तो वो ‘महादेवÓ ही ग्रहण कर रहे हैं। अगर आप ‘मछलीÓ को भोजन दे रहे हैं तो वो ‘विष्णुÓ ग्रहण कर रहे हैं।
सच तो ये है कि अधिसंख्य हिंदू राम-कृष्ण को ही भगवान मानते हैं, मगर चूंकि उनकी अभिलाषा त्वरित रूप से साईं बाबा के यहां हाजिरी देने से पूरी हो रही है तो वह उनमें आस्था रख रहा है। साईं बाबा ही क्यों, हिंदू तो निजी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मजारों तक पर सजदा करते नजर आते हैं, मगर बावजूद इसके हिंदू मान्यता के अनुसार राम-कृष्ण के साथ सभी देवी-देवताओं को भी पूजते हैं। हिंदू जीवन पद्धति से ही जी रहे हैं। इसका सबसे जीवंत उदाहरण अजमेर की सूफी दरगाह पर हिन्दू धर्मानुयाइयों की अटूट श्रद्धा में देखने को मिलता है, असंख्य हिन्दु धर्मावलम्बियों के लिए अजमेर का दर्जा किसी भी पावन हिन्दू तीर्थ से कम नहीं है। ख्वाजा साहब के प्रति आस्था के कारण उसने भगवान राम को नकार तो नहीं दिया है।
वस्तुत: हिंदू जीवन पद्धति, जिसे कि सनातन धर्म भी कहा जाता है, वह इतनी उदार और विशाल है कि हर आदरणीय के आगे शीश नवाने में हिंदू को कुछ गलत नजर नहीं आता। मुस्लिम व ईसाइयों को देखिए, वे नहीं जाते मंदिरों में सिर झुकाने। वह उनकी अपनी आस्था व जीवन दर्शन का मसला है। अकेला हिंदू ही है जो हर उस स्थान पर सिर नवाता है, जहां उसकी मनोकामना पूरी होती है। साईं बाबा के प्रकरण की बात करें तो हिंदू भगवान राम में भी आस्था रखता है और सांई में भी। वह राम के खिलाफ नहीं है, वे उसका आराध्य हैं, उनके प्रति तनिक भी संदेह नहीं है, मगर जिंदगी की जरूरतें यदि सांई बाबा के जरिए पूरी होती हैं तो वह उन्हें ही भगवान का रूप मान रहा है। गौर कीजिए, अधिसंख्य हिंदू साईं बाबा को भगवान नहीं मान रहा है, भगवान का रूप मान रहा है। न तो साईं बाबा ने कभी कहा कि वे भगवान हैं और न ही उनके भक्त यह जिद कर रहे हैं कि साईं बाबा ही भगवान हैं, और कोई नहीं। खुद साईं बाबा ही कहते थे कि सबका मालिक एक, तो भला ये कैसे मान लिया जाए कि वे ऐसा खुद के लिए कह रहे हैं। मगर जैसे ही शंकराचार्य जी ने वक्तत्व दिया तो साईं में आस्था रखने वालों की भावना आहत हुई और वे लामबंद हो गए। प्रतिक्रिया में उन्होंने इसे स्थापित करने की कोशिश की कि वे तो उन्हें भगवान मानेंगे ही, चाहे कोई कुछ भी कहे। मगर प्रतिक्रया देने वाले एक भी हिंदू ने ऐसा नहीं कहा कि उनकी सनातन धर्म में आस्था समाप्त हो गई है। इसे ठीक से समझने की जरूरत है।
बहरहाल, मठों की धार्मिक व्यवस्थाओं और शास्त्रों के लिहाज से भले ही साईं बाबा को भगवान का दर्जा नहीं दिया जाए, मगर यदि हिंदू धर्म को मानने वाला ही साईं बाबा में भगवान के दर्शन कर रहा है तो उसका क्या उपाय हो सकता है? अव्वल तो वह साईं बाबा के साथ इस कारण उठ खड़ा हुआ है और शंकराचार्य का विरोध कर रहा है, क्योंकि उसे अनावश्यक रूप से छेड़ा गया है। अन्यथा कोई समस्या ही नहीं थी।
कुल मिला कर ऐसे में साईं बाबा पर विवाद अनावश्यक और पूर्वाग्रह से प्रेरित ही प्रतीत होता है।
-तेजवानी गिरधर
dharm se dhong aadi jaisi cheejo ka naash hona chahiye,,,,antatah yahi kahunga aapne achha likha hai kintu meri sehmati purntah nahi hai,,
मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना
आपकी बात में दम है, तेजवानी जी. भले ही मैं उससे पूरी तरह सहमत नहीं हूँ.
आपका बहुत बहुत शुक्रिया