कविता : कैनवस…
एक कैनवस कोरा सा
जिसपे भरे मैंने
अरमानों के रंग
पिरो दिए
अपनी कामनाओं के बूटे
रोप दिए
अपनी ख्वाहिशों के पंख
और चाहा कि
जी लूँ अपनी सारी हसरतों को
उस कैनवास में घुसकर
आज वर्षों बाद
वही कैनवस
रंगों से भरा हुआ
उमंगों से सजा हुआ
चहक रहा था
उसके रंगों में
एक नया रंग भी दमक रहा था
मेरे भरे हुए रंगों से
एक नया रंग पनप गया था
वह कैनवस
आज
अपने मन माफिक रंगों से खिल रहा था
उसमें दिख रहे थे मेरे सपने
उसके पंख अब कोमल नहीं थे
उम्र और समझ की कठोरता थी उनमें
आकाश को पाने और ज़मीन को नापने का हुनर था उनमें
आज
यही जी चाहता है
वह कैनवस
मेरे सपनों के रंग को बसा रहने दे
और भर ले
अपने सपनों के रंग
चटख-चटख
प्यारे-प्यारे
गुलमोहर-से
जो अडिग रहते पतझड़ में
मढ़ ले कुछ ऐसे नक्षत्र
जो हर मौसम में उसे ऊर्जा दे
गढ़ ले ऐसे शब्द
जो भावनाओं की धूप से दमकता रहे
बसा ले धरा और क्षितिज को
अपनी आत्मा में
और
सफलताओं के उत्सव में
आजीवन खिलता रहे
आज
चाहती हूँ
कहूँ उस कैनवस से
तमाम कुशलता से रँग ले
अपने सपनों का
कैनवस !
दिल को छू गई आपकी रचना
waah …bahut khub
वाह! वाह !! बहुत सुन्दर कविता.