कविता

कविता : कविता कभी मरती नहीं

तुमने स्वयं के भीतर स्वयं का
जन्म होते देखा है कभी
क्या तुमने तोड़े है कभी
बगिया के आम माली की अनुपस्थिति में

ऐसा भी तो हुआ होगा की तुम्हारे घर में
खाने को कुछ ना हो, भूख से त्रस्त
तोड़ने को बाध्य हुए एक आम….

तुमने विवश होकर कुछ किये हो गुनाह
गुनाह की विवशता नहीं तुम्हे क्षमादान देने की
छोटा और बड़ा गुनाह नहीं तुलनात्मकता का विषय
दंड देना ही क्षमादान की पहल करना है
तुम सहम जाते हो भय की परते चढने
लगती है, तुम
कविता के पास चलकर जाते हो और
सारे अपने बेगुनाही के सबुत एक एक कर सौप देते हो उसे

कविता हर तथ्य और कथन की पारदर्शिता
को बारीकी से देखकर
देख लेती है तुम्हारे भीतर छिपे बेगुनाह को

दरअसल तुम्हारा उसके पास
आना आना नही, स्वयं में लौट जाना है कविता पहले ही से मौजूद होती है
तुम्हारे भीतर और हर स्थान पर

कभी भी उसका प्रवाह रुकता नहीं
कविता कभी मरती नहीं
हमारे मर जाने के बाद भी कई युगों
तक वो अपनी जीवंतता को
ओस की बूंदों की तरह
अपनी नवीनता को सजाए रखती है
अपने भीतर तुम्हे जीवंत बनाए रखती है

रुचिर अक्षर

रुचिर अक्षर. कवि एवं लेखक. निवासी- जयपुर (राजस्थान). मो. 9001785001. अहा ! जिन्दगी मासिक पत्रिका व अन्य पत्रिकाओं में अनेक कविताएँ , गजलें, नज्में प्रकाशित हुईं. वर्तमान समय में 'दैनिक युगपक्ष' अखबार में नियमित लेखन ।

One thought on “कविता : कविता कभी मरती नहीं

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब ! अच्छी कविता.

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