उपन्यास : शान्तिदूत (सातवीं कड़ी)
काम्पिल्य से द्वारिका जाते हुए कृष्ण का ध्यान पांडवों की ओर ही लगा हुआ था।
भीम के बारे में सोचते हुए कृष्ण के चेहरे पर मधुर मुस्कान खिल गयी थी। सभी भाइयों में भीम का शारीरिक बल सबसे अधिक था। वे जन्म से ही विलक्षण बलशाली थे और अपने अभ्यास से उन्होंने अपने बल का बहुत विकास किया था। उन्होंने गदा युद्ध में इतनी प्रवीणता प्राप्त की थी कि कोई भी उनकी बराबरी नहीं कर सकता था। कृष्ण को पता था कि शिक्षा के बाद जब कुरु राजकुमारों की शिक्षा का प्रदर्शन किया जा रहा था, तो भीम और दुर्योधन का गदा युद्ध हुआ था। उसमें भीम इक्कीस छूटे थे। इसका कारण केवल यह था कि दोनों का अभ्यास लगभग समान होते हुए भी भीम का शारीरिक बल अधिक था।
भीम हमेशा अपनी माता और बड़े भाई की आज्ञा के अनुसार चलते थे। इसके साथ ही सभी छोटे भाइयों का भी ध्यान रखते थे। यद्यपि उनके भोजन की मात्रा अन्य की तुलना में अधिक होती थी, लेकिन उसका औचित्य भी था। इसके अभाव में उनका शारीरिक बल क्षीण हो जाएगा, इसलिए माता कुंती और अन्य सभी भाई स्वयं कम मात्रा में खाकर भी भीम के पूर्ण भोजन की व्यवस्था करते थे। कृष्ण को यह सोचकर ग्लानि भी हुई कि महान् कुरुवंश के राजकुमार होने पर भी उनको भोजन पाने तक के लिए इतना कष्ट उठाना पड़ता था।
फिर कृष्ण का ध्यान अर्जुन की ओर गया। इसमें उनको कोई सन्देह नहीं था कि अर्जुन उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे। विभिन्न प्रकार के अस्त्रों का उससे बड़ा ज्ञाता कोई नहीं था। उनके गुरु द्रोणाचार्य ने धनुर्वेद का जितना ज्ञान प्राप्त किया था, वह लगभग सारा उन्होंने अर्जुन को दे दिया था। वे सीधे और उल्टे दोनों हाथों से तथा अंधेरे में भी तीर चलाने में निपुण थे। इसलिए अर्जुन का एक नाम ‘सव्यसाची’ भी था। अपनी धनुर्विद्या के कारण अर्जुन संसार के किसी भी योद्धा पर भारी पड़ेगा और उसको पराजित करना लगभग असम्भव ही होगा। कृष्ण के लगभग समवयस्क होने के कारण अर्जुन उनसे सबसे अधिक निकट आ गये थे और उनमें भ्रातृभाव के साथ ही गहन मित्रता का सम्बंध स्थापित हो गया था।
अब कृष्ण का ध्यान दोनों छोटे पांडवों की ओर गया। नकुल और सहदेव दोनों वय में छोटे होने के कारण ही नहीं अपने शरीर के आकार प्रकार के अनुसार भी सुकुमार ही थे। वे लम्बे समय तक कोई परिश्रम का कार्य नहीं कर सकते थे। लेकिन क्षत्रिय योद्धाओं की तरह वे खड्ग चलाने में बहुत निपुण थे और इसमें बड़े-बड़े धुरंधरों का सामना कर सकते थे। नकुल ज्योतिष के श्रेष्ठ ज्ञाता होने से आने वाले संकटों का अनुमान सफलतापूर्वक लगा सकते थे और उससे बचने के उपाय भी सोच सकते थे, हालांकि संकटों को टालना उनके वश की बात नहीं थी। सहदेव मनुष्यों और पशुओं के भी अच्छे वैद्य थे।
कुल मिलाकर ये सभी भाई मिलकर एक अच्छा और सम्पूर्ण परिवार बनाते थे।
कृष्ण का ध्यान एक बार फिर अपनी बुआ कुंती की ओर गया। जो नारी एक महान् साम्राज्य की साम्राज्ञी होने के योग्य हैं, वे विधवा होने के कारण अपने ही परिवार के षड्यंत्रों से पीड़ित होकर वन-वन भटकने को विवश हुई हैं। पाँच-पाँच वीर, गुणवान और श्रेष्ठ पुत्रों की माता होने पर भी वे भिक्षा पर निर्वाह करने के लिए बाध्य हुईं, यह कितनी बड़ी बिडम्बना है। जिन व्यक्तियों ने उनको इस प्रकार सताया है, वे दंड के भागी हैं। कृष्ण ने निश्चय किया कि अभी तक बुआ के साथ जो अन्याय हुआ, सो हुआ, लेकिन अब मैं ऐसा अन्याय नहीं होने दूँगा। उनको और उनके पुत्रों को उनका अधिकार मिलना ही चाहिए। यदि इसके लिए सम्पूर्ण कुरुवंश से भी लड़ाई मोल लेनी पड़े, तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ। अगर कुरुओं से मेरा युद्ध हुआ, तो सबसे पहले मुझे किसका सामना करना पड़ेगा? भीष्म का?
गांगेय भीष्म के बारे में सोचते हुए कृष्ण का मन कड़वाहट से भर गया। वे अपने राज्य की रक्षा कर रहे थे, यह ठीक है, परन्तु अपने परिवार को क्यों भूल गये? यह तो भीष्म के लिए बहुत लज्जा की बात है कि उनके परिवार के एक महत्वपूर्ण अंश को इस प्रकार जीवित जलाकर मार डालने का षड्यंत्र किया गया और वे इससे अनभिज्ञ रहे। राजकार्य से दूर होने का अर्थ यह तो नहीं कि अपने परिवार से ही मुख मोड़ लिया जाये? परिवार में वरिष्ठ होने के नाते उनका यह कर्तव्य है कि वे सभी परिवारियों की रक्षा करें। उनकी रक्षा बाहर वालों से ही नहीं, परिवार के भीतरी षड्यंत्रों से भी होनी चाहिए। भीष्म इतने महान् होने पर भी अपने इस प्राथमिक कर्तव्य को निभाने में असफल रहे, यह बड़े आश्चर्य की बात है। अगर महामंत्री विदुर सावधान न होते और उन्होंने इस षड्यंत्र का पता लगाकर पांडवों को पहले ही सजग न कर दिया होता, तो पांडव वारणावत की आग से जीवित न बचते और वहीं अपनी माता सहित उनका अन्त्येष्टि संस्कार हो गया होता।
कृष्ण का ध्यान अब महामंत्री विदुर की ओर गया। दासी पुत्र होने पर भी उन्होंने पांडवों के प्रति अपना पारिवारिक दायित्व पूरी तरह निभाया। महामंत्री के रूप में निश्चय ही उन्होंने अपना गुप्तचर तंत्र विकसित किया होगा। अचानक सभी पांडवों को माता सहित वारणावत जाने का आदेश मिलने पर उनकी छठी इन्द्रिय ने षड्यंत्र सूँघ लिया होगा। फिर अपने गुप्तचरों से पता लगा लिया होगा कि वारणावत का महल अत्यन्त ज्वलनशील वस्तुओं से बनाया गया है, जिनको उन्हीं दिनों वहां के हाटों से भारी मात्रा में क्रय किया गया था। इन सारे सूत्रों को जोड़कर उनको यह निष्कर्ष निकालने में देर नहीं लगी कि यह पांडवों को जीवित जलाकर मार डालने का गहरा षड्यंत्र है, जो दुर्योधन और शकुनि ने मिलकर रचा है और जिसको कर्ण की भी सम्मति रही होगी।
कृष्ण को स्वयं युधिष्ठिर ने बताया था कि चाचा विदुर ने उनको इस षड्यंत्र के बारे में गुप्त भाषा में सावधान कर दिया था। उन्होंने इससे बचने का मार्ग भी बता दिया था और सुरंग खोदने के लिए एक विश्वसनीय श्रमिक को भेज दिया था, जिसने दिन-रात परिश्रम करके समय से पहले ही सुरंग बनाकर बाहर निकलने का मार्ग खोल दिया था। इतना ही नहीं विदुर चाचा ने ही उनको बाहर निकलकर गंगा के पार जाने की व्यवस्था कर दी थी, ताकि वे आर्यों की बस्ती से बाहर राक्षसों के क्षेत्र में जाकर गुप्त रूप में तब तक रह सकें, जब तक उनके प्रकट होने का उचित समय नहीं आ जाता। यद्यपि राक्षसों के क्षेत्र में भी उनके लिए सुरक्षा की चिन्तायें थीं, परन्तु उनको विश्वास था कि महाबली भीम और अर्जुन इन चिन्ताओं से निबट लेंगे। आवश्यक होने पर महात्मा वेदव्यास जी के माध्यम से उन तक संदेश भी पहुंचाया जा सकेगा। महामंत्री विदुर की इस कर्तव्यनिष्ठा और योजना के बारे में सोचते हुए कृष्ण का मस्तक सम्मान से झुक गया। निश्चय ही महात्मा विदुर ही कौरव पक्ष में सबसे अधिक विश्वसनीय व्यक्ति हैं। उनके रहते हुए कौरव पांडवों के विरुद्ध अपने किसी षड्यंत्र में सफल नहीं हो सकते।
अंधे राजा धृतराष्ट्र के बारे में सोचते हुए कृष्ण का मन फिर कड़वा हो गया। ऐसे कर्महीन राजा का होना न होना बराबर है। पुत्र मोह ने उसकी बाहरी ही नहीं आंतरिक दृष्टि को भी नष्ट कर दिया था। तभी तो उसने अपने पुत्र के हठ के आगे झुककर पांडवों को वारणावत जाने का आदेश दे दिया, जबकि उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। धृतराष्ट्र हस्तिनापुर के राजसिंहासन के अधिकारी नहीं हैं, उसके वास्तविक अधिकारी पांडु थे और उनका राज्याभिषेक किया भी गया था। अब उनके बाद पांडु के सबसे बड़े पुत्र युधिष्ठिर ही राजसिंहासन के अधिकारी हैं। यह बात धृतराष्ट्र भी जानते थे और इसीलिए युधिष्ठिर को युवराज बनाया गया था, परन्तु इतना होने पर भी वे युधिष्ठिर को राज्य देना नहीं चाहते। कोई आश्चर्य नहीं होगा, यदि वारणावत के षड्यंत्र की पूरी जानकारी धृतराष्ट्र को भी रही हो और उनके ही आदेश पर यह षड्यंत्र रचा गया हो।
कृष्ण ने दृढ़ निश्चय किया कि अब हम ऐसा नहीं होने देंगे। अब पांडवों को उनके न्यायपूर्ण अधिकार से वंचित नहीं होने दिया जाएगा। अब धृतराष्ट्र को राजसिंहासन छोड़ना ही पड़ेगा और युधिष्ठिर को देना पड़ेगा। यह निश्चय करने के बाद कृष्ण एक दृढ़ संकल्प के साथ संतुष्टभाव से द्वारिका की ओर बढ़ चले।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’