ग़ज़ल : पा गए मंजिल मुसाफ़िर…
पा गए मंजिल मुसाफ़िर पर ये कोशिश व्यर्थ है
वक्त ने आकर कहा ये जिंदगी की शर्त है
आदमी में हैं कई कमियाँ खुदा कैसे कहें?
इतनी सच्ची बात पर भी क्या तुम्हारा तर्क है
मौत से मिलवा भी देगी पर अभी संघर्ष कर
खो गया हो हम-सफ़र तो क्या सफ़र का अर्थ है
बीच में घुटके ही अब रह जाये है अपनी सदा
कीजिये क्या तह-ब-तह परछाइयों की पर्त है
मुल्क अपना ‘शान्त’ है ये बात भी कैसे कहें
हर तरफ आतंक की उडती हुई इक गर्द है.
“शान्त”
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल, शान्त जी.