उपन्यास : शान्तिदूत (नौवीं कड़ी)
कृष्ण के विचार अब कर्ण की ओर मुड़े।
कृष्ण ने सुन रखा था कि देखने में किसी क्षत्रिय योद्धा जैसा लगने वाला कर्ण एक सूत सारथी अधिरथ के घर में पला था, जिसकी पत्नी को वह गंगा में बहता हुआ मिला था। सम्भवतः वह किसी क्षत्रिय कन्या की कुमारावस्था की सन्तान है, जिसको उसकी मां ने लोकलाज के कारण त्याग दिया हो और सुरक्षा का उचित प्रबंध करके गंगा में बहा दिया हो। निश्चय ही जन्म से वह क्षत्रिय ही होगा, परन्तु उसका लालन-पालन अधिरथ की पत्नी राधा ने अपने पुत्र के रूप में किया है और कर्ण भी स्वयं को गर्व से राधेय कहता है। किन्तु सूतपुत्र माने जाने के कारण उसके मन में बचपन से ही एक हीनभावना घर करके बैठ गयी है।
कृष्ण ने सुना था कि कर्ण प्रारम्भ से ही बहुत महत्वाकांक्षी रहा है। सूतपुत्र होने के कारण उसे गुरु द्रोणाचार्य की पाठशाला में प्रवेश नहीं मिला, तो वह अपना वेश और नाम बदलकर ब्राह्मण बनकर महर्षि परशुराम से शिक्षा लेने चला गया। एक दिन वहां उसकी वास्तविकता खुल गयी, तो महर्षि का शाप लेकर चला आया। कौरव-पांडवों के दीक्षान्त प्रदर्शन के समय वह अर्जुन के विलक्षण प्रदर्शन को सहन नहीं कर सका और उससे भी श्रेष्ठ प्रदर्शन करने की घोषणा की। द्रोणाचार्य ने उसकी वीरता का सम्मान करते हुए उसे प्रदर्शन की अनुमति दे दी। उसमें प्रशंसा पाने पर उसका अहंकार इतना बढ़ गया कि वह अर्जुन को द्वन्द्व युद्ध करने की चुनौती दे बैठा। जब उसको बताया गया कि द्वंद्व युद्ध केवल समान स्तर वालों में हो सकता है और उसका कुल-गोत्र पूछा गया, तो वह लज्जित हो गया।
लेकिन दुर्योधन ने इस अवसर को लपक लिया। उसने कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर दिया और तत्काल वहीं उसका अभिषेक करके मुकुट भी उसके सिर पर रख दिया। कृष्ण सोचने लगे कि क्या दुर्योधन को वैसा करने का अधिकार था। वह न तो राजा था, न युवराज। साम्राज्य का कोई भाग किसी और को भेंट में देने का उसे क्या अधिकार था? वहाँ उस समय पितामह भीष्म, महाराज धृतराष्ट्र, आचार्य द्रोण, आचार्य कृप, महात्मा विदुर आदि अनेक वरिष्ठ जन उपस्थित थे, परन्तु किसी ने भी दुर्योधन के इस कार्य में हस्तक्षेप नहीं किया। क्यों? क्या उसने महाराज धृतराष्ट्र की स्वीकृति ले ली थी?
जो भी हो, अंगराज बन जाने पर भी अर्जुन से द्वंद्व युद्ध करने की कर्ण की इच्छा पूरी नहीं हुई, क्योंकि तब तक उसका पालक पिता अधिरथ उस स्थल पर आ गया और सबको पता चल गया कि कर्ण वास्तव में सूतपुत्र है। इसके साथ ही सूर्य अस्त हो गया और कृपाचार्य ने समारोह समाप्त होने की घोषणा कर दी। कृष्ण ने सोचा कि उस दिन के बाद कर्ण को पांडवों के प्रति द्वेष उत्पन्न हो गया। वह मान-सम्मान का इतना भूखा था कि दुर्योधन द्वारा दिये गये राजपद के बदले में उसने अपना समस्त सम्मान, धर्म, विवेक और जीवन तक दुर्योधन के पास रहन रख दिया। उसने आजीवन हर परिस्थिति में दुर्योधन का साथ देने का वचन दे दिया और एक प्रकार से उसका क्रीत दास बन गया, जिसे ‘मित्रता’ का नाम दिया गया था।
कर्ण ने यह नहीं सोचा कि दुर्योधन उसके प्रति जो उदारता दिखा रहा है, वह अकारण नहीं है, उसके पीछे दुर्योधन का घोर स्वार्थ छिपा हुआ है। दुर्योधन जानता था कि कर्ण बहुत वीर है और युद्ध में पांडवों विशेषकर अर्जुन का सामना यदि कोई कर सकता है, तो वह केवल कर्ण ही है। इसीलिए उसने कर्ण को अपने पक्ष में करने के लिए उसे राजपद का चारा डाला था, जिसके जाल में कर्ण फंस गया। अंगदेश का ‘स्वतंत्र’ राजा बन जाने पर भी उसने कभी अपने राज्य के राजकार्य में रुचि नहीं ली और हस्तिनापुर में ही दुर्योधन के पास के भवन में रहता रहा।
घनिष्ट मित्र होने के कारण कर्ण दुर्योधन की अंतरंग मंडली का सदस्य बन गया। दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्ण की यह चौकड़ी हस्तिनापुर राज्य की भाग्यविधाता बन गयी और सभी कुरुओं को अपनी मनमर्जी से हांकने लगी। दुर्योधन की उद्दंडता से त्रस्त होकर राजमाता सत्यवती अपनी दोनों बहुओं अम्बिका और अम्बालिका को लेकर पहले ही वन को प्रस्थान कर चुकी थीं। कुरुओं में सबसे वरिष्ठ पितामह भीष्म भी शायद ऐसा ही करते, परन्तु वे अपनी तथाकथित प्रतिज्ञा से बंधे हुए थे और अपने जीवन की अन्तिम सांस तक हस्तिनापुर के राज सिंहासन की रक्षा करने को बाध्य थे। इस चौकड़ी ने उनको भी केवल शोभा की वस्तु बनाकर छोड़ दिया था।
अंधे महाराज धृतराष्ट्र अपने बुद्धिहीन पुत्रमोह के कारण दुर्योधन के हर हठ को पूरा करते थे। शकुनि भी तरह-तरह की बातें करके उनके विवेक को नष्ट करता रहता था। विवश माता गांधारी भली प्रकार समझती थीं कि शकुनि और दुर्योधन विनाश के मार्ग पर चल रहे हैं, लेकिन उनके समझाने का दुर्योधन पर लेशमात्र भी प्रभाव नहीं होता था। यही हाल विदुर की सलाह का होता था। अतः सबने एक प्रकार से दुर्योधन के सामने हथियार डाल दिये थे और धृतराष्ट्र बस नाममात्र के महाराज बनकर रह गये थे।
इस स्थिति का पूरा लाभ दुर्योधन ने उठाया और पांडवों को माता सहित वारणावत जाने का आदेश दिलवा दिया, जहाँ भयंकर अग्नि के रूप में मृत्यु उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। वह तो महामंत्री विदुर सतर्क थे, जिसके कारण पांडवों को संकट की पूर्व सूचना समय से मिल गयी और वे अपने प्राण बचाने का उद्योग कर सके, नहीं तो कदाचित् पांडवों की कहानी वहीं समाप्त हो गयी होती।
कृष्ण ने सोचा कि क्या दुर्योधन को किंचित् भी सन्देह नहीं हुआ था कि पांडव जीवित बच गये हैं? सन्देह के तीन कारण तो पूरी तरह स्पष्ट थे। एक, आग अमावस्या के दिन लगायी जाने वाली थी, परन्तु एक दिन पहले चतुर्दशी को ही लगा दी गयी थी। षड्यंत्र की योजना में ऐसा परिवर्तन होना साधारण बात नहीं होती। दो, जिस विरोचन को उसने आग लगाने का कार्य सौंपा था, वह लौटकर नहीं आया था, अर्थात् वह स्वयं भी जलकर मर गया था। ये दोनों कारण ही सन्देह करने के लिए पर्याप्त थे। लेकिन तीसरा और सबसे बड़ा कारण यह भी था कि जले हुए भवन में जो 6-7 मानव कंकाल मिले थे उनमें एक भी भीम के शरीर के आकार का नहीं था। यह कैसे हो सकता है कि जलने पर किसी व्यक्ति का कंकाल उसके आकार से छोटा हो जाये?
कृष्ण को लगता था कि कदाचित् दुर्योधन को भी कुछ सन्देह हो गया था। परन्तु वह अपने सन्देह को स्पष्ट प्रकट नहीं कर सकता था, इसलिए उसने अपने गुप्तचर छोड़ रखे थे कि यदि कहीं भी पांडवों की गंध मिले, तो पता लगाकर उनको वहीं समाप्त कर दिया जाए। किन्तु महामंत्री विदुर ने इस संभावना पर पहले ही विचार कर लिया था, इसलिए उन्होंने पांडवों को राक्षसों के ऐसे क्षेत्र में छिपने की सलाह दी थी, जहां कौरवों के गुप्तचर कभी पहुंच ही नहीं सकते थे। बहुत दिनों बाद जब वे गुप्तचर निराश और शिथिल हो गये थे, तो पांडवों को बाहर आने का परामर्श दिया गया था, ताकि वे उचित समय और उचित स्थान पर प्रकट हो जायें।
द्रोपदी के स्वयंवर में अर्जुन द्वारा लक्ष्य भेद करते ही दुर्योधन को पता चल गया कि पांडवों को जीवित जलाकर मार डालने का उसका षड्यंत्र पूरी तरह विफल हो गया है, क्योंकि लक्ष्य भेद का वह कार्य कर्ण और अर्जुन के अलावा कोई अन्य व्यक्ति कर ही नहीं सकता था। लक्ष्य भेद के बाद वेष बदले हुए अर्जुन को पहचानने में उसे तनिक भी देर नहीं लगी। रहा सहा सन्देह भीम के सामने आने के बाद दूर हो गया। कृष्ण को याद है कि उस समय दुर्योधन की व्यग्रता देखने योग्य थी। उसने और उसके साथियों कर्ण, शिशुपाल, दुःशासन आदि ने प्रतियोगिता स्थल पर उपद्रव करने की पूरी कोशिश की, कुछ युद्ध भी किया, लेकिन उसमें कर्ण के पुत्र सुदात्मन के मारे जाने के बाद उनका विरोध शिथिल हो गया और वे अपने प्राण बचाने की चिन्ता करने लगे। कर्ण भी लड़ना छोड़कर अपने पुत्र के मृत्यु-शोक में डूब गया और फिर शीघ्र ही वे सब हस्तिनापुर को प्रस्थान कर गये।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’