धर्म की च्युइंगम
धर्म एक ऐसा विषय है जो हमारे जीवन में रचा बसा है , न चाहते हुए भी हमें धर्म के उपदेशो या धर्म के व्याख्यानों को कभी न कभी सुनना ही पड़ता है ।
मनु महाराज ने वैसे तो धर्म के दस लक्ष्ण बताये है जो नैतिकता के हैं , परन्तु धर्म के कितने लक्षण हैं इसका ठीक ठीक अंदाजा नहीं है क्यों की श्रीमद भागवत के सप्तम स्कन्द में कहा गया है की धर्म के 30 लक्षण होते हैं।
फिर भी यदि हम थोड़ी देर मनुमहराज के दस लक्षणों (धृति, क्षमा, अस्तेय आदि ) लक्षणों को (जो की वास्तव में नैतिकता के लक्षण है) धर्म के लक्षण मान लेते हैं तो भी इनके लक्षण हमारे सामाजिक जीवन से सम्बंधित है। उनके इस कथन को सही माना जा सकता है जो उन्होंने मनुस्मृति में कहा
धर्म एव हतो हन्ति धर्मोरक्षित रक्षित: ,
तस्माद धर्मो न हन्तव्यो माँ नो धर्मो हतोsवधित: ,, ( 8/15)
अर्थात हम यदि धर्म को समाप्त कर देंगे तो वह समाप्त हुआ धर्म हमारा भी अंत कर देगा. यदि हम धर्म की रक्षा करेंगे तो वह हमारी भी रक्षा करेगा . इसलिए धर्म का नाश नहीं करना चाहिए . कंही नष्ट हुआ धर्म हमें समाप्त न कर दे ‘;
यंहा यदि धर्म उन दस नैतिक लक्षणों को बात है तो यह बात माना जा सकता है की हम शौच, इंद्री निग्रह आदि नहीं करेंगे तो हमारे सामाजिक जीवन को हानि होगी।
पर मनु महाराज उससे पहले यह भी कहते हैं कि –
यजेत राजा ……….. भोगन्धनानि च ( मनु. 7/82)
अर्थात राज बड़ी बड़ी दक्षिणा वाले अनेक यज्ञ करे और धर्म के लिए ब्राह्मणों को ( स्त्री, गृह, शय्या, वाहन आदि) भोग करने वाले पदार्थ दान करे।
अब यंहा मनु महाराज कौन से धर्म के लिए भोग की वस्तुए ब्राह्मण को दान देने के लिए कह रहे है?
मुझे समझ नहीं आया।
इसके आलावा महाभारत में धर्म का अर्थ दिया है की मनुष्य को सदा विष्णु की भक्ति करनी चाहिए। देखें-
एषा में सर्वधर्मणा धर्मोधिकतमो…… चेन्नर: सदा( महाभारत, भीष्म पर्व 149/8)
अर्थात- मैं तो सभी धर्मो में श्रेष्ठ यह समझता हूँ की मनुष्य स्तुतियो से सदा विष्णु की पूजा करे
यानि हर जगह धर्म के अर्थ बदल दिए गए है,धर्म क्या है यह ठीक से कहना मुश्किल है । लोग कहते हैं की धर्म शास्वत है …. यदि शाश्वत है तो उसके इतने सारे प्रयोग क्यों हैं? इतने सारे अर्थ क्यों है?
यानि इसका अर्थ यह समझा जाये की धर्म वास्तव में एक चुइंगम की भांति है जिसके अर्थ और प्रयोग को सबने अपने हिसाब से चबा के और खिंच तान के अपना उल्लू सीधा करने के लिए स्थान स्थान पर फिट किया हुआ है?
विजय जी ने सही कहा .यदि हम सब कर्मो के मूल में जाएँ तो धर्म वह है जो कि जगत के हित में हो ना की व्यक्तिगत हित में . और आप बात कर रहे है कर्म की जो की धर्म के लिए किये जाने चाहिए
केशव जी, मुझे लगता है कि आप धर्म और पंथ के अंतर को नहीं समझ पा रहे हैं. धर्म का सीधा सम्बन्ध नैतिकता और कर्तव्य से है, जबकि पंथ केवल कुछ कर्मकांडों या पूजा पद्धति पर जोर देने वाली परम्पराएँ हैं. आपकी टिप्पणी पंथों और उनके ठेकेदारों पर सही उतरती है. धर्म पर नहीं.