स्वप्न में तुम आये थे प्रियवर
स्वप्न में तुम आये थे प्रियवर
बोले मेरा हाथ थाम कर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
कंचन सी तुम खिली हुई
रजनीगंधा सी महक रही थीं
थे अश्रु तुम्हारी आखों में
पर होठो से चहक रही थीं
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
होठ तुम्हारे बोल रहे थे
कर्णो में अमृत घोल रहे थे
हृदय विचार तुम खोल रहे थे
मन ही मन हमको तोल रहे थे
थे अनंत विचार उठते रह रह कर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
मोहपाश में बंधा हुआ मैं
अपलक तुम्हे निहार रहा था
तुम समक्ष थीं जब मेरे
न कोई और विचार रहा था
धड़क रहा था हृदय तीव्रतर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
मेघ सदृश वो केश तुम्हारे
मन को भायें कंचनवर्णा
कमलरूपी वो चक्षु तुम्हारे
हृदय डिगाए कंचनवर्णा
रवि भी चलता तुम्हे देखकर
है तुम में ऐसा आकर्षण
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
अलौकिक सौंदर्य तुम्हारा
अंशक सबको विचलित करता
अशिव मेरा जब हृदय होता
उत्साहित मुझको करता
अन्धकार मय इस जीवन के
तुम्ही लगो बस मुझे तमोहर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
जब चाहा स्पर्श तुम्हारा
बने आजीवन हर्ष हमारा
उदिद -पयोदी की भीषणता में
तुम बन जाओ मेरा सहारा
कैसे कहूं पर तुम से प्रियवर
हूँ व्याकुल मैं तुमसे मिलकर
हृदयभेद कहने के अशक्षम
फिर भी चाहूं तुमसे उत्तर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
प्रणय निवेदन करना प्रियवर
मेरे लिए आसान नहीं था
हृदय भेद था तुमसे कहना
लेना कोई वरदान नहीं था
चला पकड़ने था मैं दिनकर
की थी चेष्ठा मैंने डरकर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
क्या यह प्रेमस्पर्श तुम्हारा
है बन सकता उत्कर्ष हमारा
सोच के उत्तर देना प्रियवर
न सुनना नहीं हमें गवारा
कैसे समझाऊँ तुमको कहकर
है इतना प्यार कि तुम बिन रहकर
श्यामल लगता है उजियारा
तुम्ही मात्र जीवन के दिवाकर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
कहीं अगर तुम ना भी कहते
फिर भी सदा दिल में ही रहते
लघु धाराये मुड भी जाएँ
प्रेमसागर हैं अविचल बहते
अपनी स्वीकृति तुमने देकर
उपकार किया है प्रेम पर प्रियवर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
रिमझिम सी बरसात रही थी
कितनी हंसी वो रात रही थी
कोई और नहीं था विचारों में
बस तुम ही हृदय के पास रहीं थी
बोली मेरा कर सहलाकर
आश्वाशन चाहूं कर को जोड़कर
चले ना जाना मुझे छोड़कर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
सिमट के मेरी बाँहों मैं तुम
मेरे हृदय से लिपट रहीं थीं
पल वो जो स्वप्निल थे बस
फिर भी तुम कितनी निकट रही थीं
कर से कर स्पर्श हुआ तो ,
सहम गया था सारा अम्बर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
उन उत्सुकता के लम्हों में
ह्रदय मेरा कुछ विचलित सा था
तुम समीप आओगी इतना
मात्र मेरे लिए कल्पित सा था
भाग्य मैं मेरे होगा दिनकर
था उत्साहित यही सोच कर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
उत्सर्जन वह मिलन तुम्हारा
उत्त्मोतम तुमको कहता
अनुरंजन जो अनुक्त है
सदा मेरे दिल में रहता
कृपा दृष्टि तुम्हारी पाकर
बुझ जाये नैनो की तर्शितर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
था अनुक्त सौन्दर्य तुमहरा
और वह प्रेमाश्पर्ष तुम्हारा
मैं तो जीवन भी दे देता
यदि बन सकता वह हर्ष तुम्हारा
पर तुमने कुछ और मांगकर
तोड़ दिया वो कल्पित मंजर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
मेरे सुख में प्रसन्न हुईं
दुःख में मेरे उदास हुईं थीं
मेरी विवशता से तुम विचलित
मुझ से बहुत निराश हुई थी
भरे अश्रु तुम बनी धराधर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
मेरा नैराश्य तुम्हे
त्रणशोषक बन कर डसता
नमोरजस है सर्वव्याप्त
नभ केतन ना कही दिखता
चण प्रतीत होते परिवत्सर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
अम्बर व्यथित धरा थी विस्मित
दिशाएं समस्त उदास सी थी
है ऐसा दृष्य कभी देखा प्रियवर
आशाएं भी निराश सी थी
सहमे हुए थे सारे हितकर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
तुम बिन प्रिये धरा यह सूनी
तुम बिन है निस्तब्ध अँधेरा
मात्र तुम्ही प्रकाश -पुंज
बनकर आतीं नित्य सवेरा
तुम ही मेरी निशा बनी प्रिय ,
तुम ही बन जाती हो दिवाकर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
अभिलाषा या आस नहीं हो
मेरा मात्र विश्वास नहीं हो
ह्रदय विचिप्त सा रहता मेरा
अब जब तुम मेरे पास नहीं हो
प्रेम अग्नि क्या होती प्रियवर
ज्ञात हुआ है तुम को खोकर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
स्वपन मात्र यदि जीवन होता
तुम भी होतीं मैं भी होता
मात्र कल्पना सत्य नहीं
काश विदित ये पहले होता
कैसे रुकें अब आगे बढकर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
खोकर तुम्हे पाने की कल्पना
होगा भग्य या होगी विडंबना
खुद में भी मैं ढूंढ चुका हूँ
पर मिली नहीं प्रसुप्त चेतना
हूँ अन्तगति की ओर अग्रसर
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
” जिसने सोच विचार किया है
उसने कभी क्या प्यार किया है
जो पथिक ना विचलित हुआ कभी
उसने ही पथ को पार किया है
पर लाख चलें हम राज संभल कर
है मुमकिन लग जाये ठोकर “
था व्यथित हृदय पर बोली हँसकर
तुम हो धरा और मैं हूँ अम्बर
फिर क्यों मन रहता है तत्पर
तुम पर करने को प्राण न्योछावर
चली गयीं तुम मुझे छोड़कर
था व्यथित हृदय पर बोलीं हँसकर
“जीवन तो होता है नश्वर
रह लोगे मुझ बिन मुझे चाहकर
यकीन है मुझको इतना तुमपर
तुम ही कहा करते थे प्रियवर
प्रेम नहीं होता है कायर
प्रेम नहीं होता है कायर “
अभिवृत अक्षांश “राज”
मजेदार कविता , गैहरे विचार .
आपका हार्दिक आभार गुरमेल सिंह जी
वाह! वाह!! बहुत सुन्दर कविता.
आपका हार्दिक आभार विजय जी