वह दरख़्त
वह दरख़्त
सहता रहा
मौसमों की मार
साल-दर-साल
लगातार
नहीं रही नमी
झर गए पत्ते
सूख गईं शाखें
तन्हा कर गए
खुद ग़रज़ सभी
नहीं पर मारता इधर
कोई परिंदा
चींटीं, गिलहरियाँ
न जाने कहाँ खो गईं
कोई राहजन
जानवर तक
आता नहीं पास
खड़ा है उदास
नितांत अकेला
निर्जन
हो गया है जड़ ।
एक मुसाफ़िर
उसके नसीब से
गुज़रा करीब से
देखा जीवन शेष
जगी संवेदना
कुछ अपनापन
लगा सींचने
प्यार से
मनोयोग से
हरिया उठा है पेड़
उसके नेह
विश्वास से ।
– सुशीला शिवराण
दरख्तों के ऊपर बहुत बढ़िया कविता लिखी है.
बहुत अच्छी कविता है .
बहुत अच्छी कविता. आपने सरल शब्दों में एक वृक्ष की भावनाओं को बहुत अच्छी तरह प्रकट किया है.