उपन्यास : शान्तिदूत (पंद्रहवीं कड़ी)
कृष्ण कौरवों की राजसभा में हुई आगे की घटनाओं पर विचार करने लगे, जैसा कि उनको बाद में ज्ञात हुआ।
महारानी द्रोपदी अपने वस्त्रों को शरीर से अलग होने से बचाने का पूरे बल से प्रयास कर रही थी, इसलिए दुःशासन उसमें पूरी तरह सफल नहीं हुआ। कदाचित वह सफल हो भी जाता, लेकिन तभी किसी ने महारानी गांधारी को इसकी सूचना दे दी और वे राजसभा में आ गयीं। आंखों पर पट्टी बंधे होने पर भी उन्हें राजसभा का दृश्य समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
एक नारी की पीड़ा दूसरी नारी ही अच्छी तरह समझ सकती है। उन्होंने महान कुरुवंश की राजसभा में घट रही इस अमानवीय घटना पर बहुत क्रोध प्रकट किया और अंधे महाराज धृतराष्ट्र को धिक्कारा कि आपके होते हुए यह अनर्थ क्यों हो रहा है? अभी तक निर्विकार बैठे हुए महाराज को भी पत्नी द्वारा धिक्कारने पर लज्जा आयी और उन्होंने तत्काल आदेश देकर दुःशासन को वहीं रोक दिया। इतना ही नहीं उन्होंने द्यूत में हारी हुई समस्त सम्पत्ति और पांडवों को भी कौरवों के स्वामित्व से मुक्त कर दिया। पांडवों सहित सभी ने राहत की सांस ली और फिर शीघ्र ही वे इन्द्रप्रस्थ को प्रस्थान कर गये।
पांडवों के इस प्रकार मुक्त हो जाने से दुर्योधन और उसके साथियों की सारी योजनायें रखी रह गयीं। वह इस बात को सहन नहीं कर सकता था। इसलिए पांडवों के जाते ही उसने धृतराष्ट्र पर दबाब डालकर उनको फिर द्यूत के लिए बुलाया। पिछली बार की तरह पांडवों ने इस बार भी महाराज धृतराष्ट्र के आदेश का पालन करने में कोई देरी नहीं की और युधिष्ठिर फिर से द्यूत खेलने बैठ गये।
इस बार द्यूत की केवल एक बाजी रखी गयी। उसमें दांव के रूप में 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास रखा गया। युधिष्ठिर ने यह दांव भी स्वीकार कर लिया। पासे फेंके गये और जैसा कि पहले हुआ था, यह दांव भी शकुनि ने जीत लिया। दांव हारने के बाद पांडव 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास करने को तैयार हो गये।
कृष्ण सोचने लगे कि यह जानते हुए भी कि वे शकुनि से कोई दांव नहीं जीत सकते, युधिष्ठिर दोबारा द्यूत खेलने को क्यों तैयार हो गये। यही नहीं वे 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास करने को भी तैयार हो गये। क्यों? क्या युधिष्ठिर ने यह सोचा था कि उनके वनवास में जाने से कुरुवंश की दो शाखाओं के बीच विवाद और संघर्ष शान्त हो जाएगा और वे विनाश से बच जायेंगे? अगर युधिष्ठिर ने यह सोचा हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। वे परिवार का सम्मान और एकता बचाने के लिए कोई भी आहुति देने को तैयार रहते थे।
युधिष्ठिर ने माता कुंती को अपने चाचा विदुर के यहां छोड़ दिया, जो नगर के बाहरी क्षेत्र में एक साधारण घर में निवास करते थे। द्रोपदी के पांचों पुत्र, जो उस समय अबोध ही थे, अपने नाना द्रुपद के यहां चले गये। वहां उनकी क्षत्रियोचित शिक्षा-दीक्षा हुई। सुभद्रा अपने पुत्र अभिमन्यु को लेकर अपने मायके द्वारिका चली गयीं। वहां अभिमन्यु को कृष्ण ने सभी प्रकार के युद्ध की शिक्षा दी और श्रेष्ठ महारथी बनाया। सती महारानी द्रोपदी ने इस विषम परिस्थिति में भी अपने पतियों का साथ नहीं छोड़ा और वन में ही उनके साथ सभी सुख-दुःख भोगने का निश्चय किया।
लेकिन पांडवों के वनवास पर जाने की बात कृष्ण को अच्छी नहीं लगी। जैसे ही उनको इसकी सूचना मिली, वे वन में जाकर पांडवों से मिले। कृष्ण के आने पर सबको बहुत सांत्वना मिली। यद्यपि कृष्ण ने इस बात पर रोष प्रकट किया कि द्यूत जैसे कार्य में जाने से पहले मुझे सूचना नहीं दी गयी, अन्यथा मैं इस घटना को न होने देता और पांचाली का अपमान न होता। युधिष्ठिर को भी पांचाली के अपमान के कारण बहुत ग्लानि हो रही थी। उन्होंने सबसे इसके लिए क्षमा मांगी और यह वचन दिया कि आगे से कोई भी बड़ा निर्णय मैं अकेले नहीं लूँगा, वरन् सभी भाई मिलकर ही निर्णय करेंगे। कृष्ण ने यह निश्चय करने के लिए युधिष्ठिर को साधुवाद दिया।
इस विचार विमर्श में वन में रहते हुए द्रोपदी की सुरक्षा का प्रश्न भी उठा। उसका दायित्व स्वयं ही भीम ने अपने ऊपर ले लिया। उन्होंने कहा कि आगे से पांचाली की रक्षा का दायित्व मेरा है। अगर किसी ने पांचाली की ओर आँख उठाकर भी देखा, तो मैं किसी धर्म-अधर्म की चिन्ता किये बिना उसके प्राण ले लूंगा। कृष्ण ने इसके लिए भीम का अभिनन्दन किया। उन्होंने अपनी मुंहबोली बहिन महारानी द्रोपदी को वचन दिया कि किसी भी संकट के समय याद करने पर मैं तत्काल तुम्हारी सहायता को आ जाऊंगा।
उन्होंने पांडवों से कहा कि आप 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण कर भी लें, तो भी दुर्योधन आपको आपका राज्य नहीं लौटायेगा। इसके लिए आपको युद्ध करना होगा। इसलिए उन्होंने पांडवों को सलाह दी कि वनवास की अवधि का उपयोग वे अधिक से अधिक मित्र बनाने और अस्त्र-शस्त्रों का संग्रह करने में करें। यह सलाह देकर वे द्वारिका लौट गये और पांडवों का वनवास प्रारम्भ हुआ।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
बहुत शानदार उपन्यास लिख रहे हैं आप ! इसे जल्दी पूर्ण कीजिये.
धन्यवाद, धनंजय जी. कोशिश कर रहा हूँ.
आपका उपन्यास बहुत रोचक होता जा रहा है. आगे की कड़ियों की प्रतीक्षा रहती है.
बहुत बहुत धन्यवाद, अजीत जी. हर कड़ी तीसरे दिन आ जाती है. इससे ज्यादा लिखने का समय मेरे पास नहीं है.
विजय भाई , बहुत अच्छा लिखा है .
आभार, भाई साहब.
विजय भाई , आप का लिखने का ढंग बहुत अच्छा है , जो आप ने दरोपदी के बारे में बिआं किया है , पहली दफा यह सीन मुझे सही लगा किओंकि हमेशा से यह ही पड़ने देखने में आता था कि दरोपदी की साड़ी दुहसासन खींच रहा है और क्रिशन भगवान् उस को और बड़ा किये जा रहे हैं . जो गांधारी ने किया वोह समझ में आता है कि जब इतना कुछ घर में हो तो बजुर्गों की दखल अंदाजी सही लगती है .
आभार, भाई साहब. द्रोपदी का चीर बढ़ाते जाने की बात मुझे काल्पनिक ही लगती है. इसलिए मैंने तार्किक रूप से सोचकर ही उस दृश्य का वर्णन किया है. चोपड़ा जी के महाभारत सीरियल में भी गांधारी द्वारा द्रोपदी को मुक्त कराने का दृश्य था. हालाँकि उसमें चीर बढ़ाते भी दिखाया गया था. आपने इस बात पर ध्यान दिया, यह मुझे अच्छा लगा.
विजय भाई , जो फिल्मों ने और टीवी सीरिअल्ज़ ने अंधविश्वास फैलाया है सिर्फ अपनी रेटिंग बडाने के लिए वोह पुरातन ग्रंथों के साथ अनिआए है . भहाभारत और रामाएंन को इत्हासिक दृष्टि से लिखने की जरुरत है ताकि असलीअत सामने आ सके . भगतों ने श्रधा में आ कर इतना ज़िआदा काल्पनिक बना दिया कि उस समय के सही हालात छुप गए . टीवी सीरिअल्ज़ में मिउजिक ज़िआदा करके और जादूगरी ढंग से पेश करने से इन ग्रंथों के साथ बेइंसाफी हुई है .
और एक बात और कि आम तौर पर लोग पांडवों को गलत थैह्राने लगते हैं कि उन्होंने कुछ नहीं किया . यह बात भी सही लगती है कि अगर पांडव गुस्से में आ कर लड़ाई करने लगते तो वोह दस बारह को मार कर सवैम भी शहीद हो जाते , फिर ना तो महांभारत की लड़ाई होती न पांडवों का खोया हुआ राज और इज़त वापिस मिलती . आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं .
भाई साहब, आप इस बात को शीघ्र समझ गए और उससे सहमत भी हुए, इसके लिए आभारी हूँ. फेसबुक पर एक देवी जी ने एक कविता लिखी थी, जिसकी एक लाइन थी- “पांडव नाकारा झूठा रोष लिए फिरते.” मैंने इस लाइन पर घोर आपत्ति की और उनको समझाया कि न तो पांडव नाकारा थे और न उनका रोष झूठा था. बड़ी मुश्किल से वे सहमत हुईं, लेकिन उन्होंने अपनी कविता नहीं सुधारी. बहुत से लोग इस बात को नहीं समझते और पांडवों के बारे में उल्टा सीधा बोलते हैं.