लघुकथा

लघुकथा : मालामाल

पागल, निकम्मा  कह कर जिसे घर वालो ने घर से निकाल बाहर दर – दर भटकने को मजबूर किया,  उसी ने अपने माता – पिता को तब सहारा दिया जब उसके बड़े भाई ने उन दोनों को भी फालतू समझ कर वृद्धा आश्रम में भेजना चाहा |

वह अपने साथ ले गया अपने माता – पिता को और बोला भाई को, ” मै आज मालामाल हूँ ,और आप आज कंगाल हैं.”

शान्ति पुरोहित

निज आनंद के लिए लिखती हूँ जो भी शब्द गढ़ लेती हूँ कागज पर उतार कर आपके समक्ष रख देती हूँ

6 thoughts on “लघुकथा : मालामाल

  • जगदीश सोनकर

    छोटी सी कहानी से बड़ा सन्देश.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    शान्ति बहन , छोटी सी मिनी कहानी में आप ने बहुत कुछ कह दिया . यह इंसान की बदकिस्मती ही कह सकते हैं कि कभी कभी जिस को हम निक्कमा कह कर दुत्कार देते हैं वोही कठिनाई में आप का साथ डे देता है और जिस पर हम भरोसा करके बैठे रहते हैं वोही दगा डे जाता है . बहुत अच्छी कहानी .

    • शान्ति पुरोहित

      धन्यवाद, भाई साहब.

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

    • शान्ति पुरोहित

      धन्यवाद.

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