उपन्यास : शान्तिदूत (सोलहवीं कड़ी)
अब कृष्ण वनवास में पांडवों के साथ घटी घटनाओं पर विचार करने लगे।
वनवास में पांडव घास-फूस की कुटी बनाकर रहते थे, जो उनके लिए कोई कठिन कार्य नहीं था। उनका अधिकांश समय अपने और यदा-कदा आने वाले अतिथियों के लिए भोजन की व्यवस्था करने में बीतता था। उनसे मिलने के लिए आने वाले साधु-संतों के साथ धर्म चर्चा होती रहती थी। शेष समय वे अस्त्र-शस्त्रों का अभ्यास करने में व्यस्त रहते थे। उन्होंने अपनी रक्षा का प्रबंध कर रखा था और हर समय कम से कम एक भाई अवश्य जगा रहता था, ताकि जंगली पशुओं और शत्रुओं से अपनी रक्षा की जा सके।
कुल मिलाकर वे बहुत कष्टपूर्ण जीवन जी रहे थे, लेकिन उनके हृदय में इसके लिए कोई ग्लानि नहीं थी। वे राजसभा में हुए द्रोपदी के अपमान को एक क्षण के लिए भी भूले नहीं और उस समय की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब वे उसके अपराधियों को उचित दंड देकर अपनी प्रतिज्ञाएं पूर्ण कर सकेंगे।
उनको सबसे अधिक चिन्ता अतिथियों के भोजन की होती थी। वे स्वयं तो फल आदि खाकर रह सकते थे, लेकिन अतिथियों का सत्कार करना उनका कर्तव्य था। सौभाग्य से उनको सूर्य भगवान की कृपा से एक ऐसा अक्षयपात्र मिल गया था, जिसकी सामग्री तभी समाप्त होती थी, जब भोजन बनाने वाला भोजन कर चुका हो। अतः जब सभी अतिथि और पांडव भी भोजन कर लेते थे, तो अन्त में द्रोपदी भोजन करती थीं। इस प्रकार उनकी समस्या हल हो गयी थी।
लेकिन दुर्योधन पांडवों को 13 वर्ष के वनवास में भेजकर भी अपनी दुष्टता नहीं छोड़ सका। वह पांडवों को अधिक से अधिक कष्ट देना चाहता था, ताकि उसके मन को संतुष्टि मिले। एक बार दुर्योधन के महल में दुर्वासा ऋषि पधारे, तो उसने उनको अपनी सेवा से प्रसन्न कर लिया और उनसे यह निवेदन किया कि वे युधिष्ठिर को भी अपने आतिथ्य का अवसर दें। इसके साथ ही उसने यह वचन भी ले लिया कि वे उसी समय भोजन हेतु जायें, जब सभी पांडव और द्रोपदी भी भोजन कर चुकी हो।
इसके अनुसार ऋषि दुर्वासा अपने अनेक शिष्यों के साथ पांडवों के पास वन में दोपहर बाद उस समय पहुंचे जब सभी व्यक्ति भोजन कर चुके थे। उन्होंने आते ही आदेश दिया कि मैं शिष्यों के साथ स्नान करने जा रहा हूँ, लौटकर सब भोजन करेंगे। यह कहकर वे तो चले गये और इधर पांडव चिन्तित हो गये कि उनके लिए भोजन का प्रबंध कैसे होगा। अगर ऋषि को भोजन न कराया जाता, तो वे शाप देकर चले जाते, जिससे पांडवों का विनाश भी हो सकता था।
घोर संकट सामने देखकर द्रोपदी ने भगवान श्रीकृष्ण को याद किया। अपने वचन के अनुसार वे तत्काल प्रकट हो गये और आते ही उन्होंने भोजन मांगा। द्रोपदी ने कहा कि जिस समस्या के समाधान के लिए आपको याद किया है, वही समस्या आप स्वयं उपस्थित कर रहे हैं। कृष्ण ने कहा कि वह पात्र लाओ, जिसमें भोजन बनाया गया था। द्रोपदी वह पात्र लायी, तो उसमें अन्न का एक दाना चिपका हुआ था। कृष्ण ने कहा कि इतना ही मेरे लिए पर्याप्त है। उन्होंने वह अन्न खा लिया और इस तरह डकार ली, मानो पेट भरकर खाया हो।
इधर कृष्ण के डकार लेते ही उधर ऋषि दुर्वासा और उनके शिष्यों के पेट भर गये और उनको भी डकार आने लगी। भूख समाप्त हो जाने के कारण उनका साहस फिर पांडवों के पास जाने का नहीं हुआ और वे वहीं से चले गये। इस प्रकार दुर्योधन का पांडवों को संकट में डालने का एक षड्यंत्र विफल हो गया।
इसी प्रकार एक बार दुर्योधन की बहिन दुःशला का पति सिंधुराज जयद्रथ पांडवों की कुटी में उस समय आ धमका, जब वहाँ द्रोपदी अकेली थी और पांडव आस-पास के जंगल में लकड़ी लेने गये थे। द्रोपदी ने ननदोई होने के नाते उसका स्वागत किया। इसका जयद्रथ ने गलत अर्थ लगाया। उसने द्रोपदी को लुभाने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातें कीं और अपने महल में सुख-सुविधायें भोगने के सपने दिखाये। इस पर द्रोपदी ने उससे कहा कि मैं वन में अभावों के बीच अपने पतियों के साथ ही सुखी हूँ और मुझे किसी की कृपा की आवश्यकता नहीं है। अगर मुझे सुख-सुविधायें ही भोगनी होतीं, तो मैं भी अपने मायके चली जाती। मेरे पिता द्रुपद भी बड़े राजा हैं।
लेकिन जयद्रथ पर इन बातों का उल्टा ही प्रभाव हुआ। वह द्रोपदी से और भी अधिक आग्रह करने लगा। इस पर द्रोपदी ने उसको बहुत डाँटा और तुरन्त भाग जाने के लिए कह दिया, वरना पांडव तुझे जीवित नहीं छोड़ेंगे। यह सुनकर जयद्रथ को चले जाना चाहिए था, लेकिन उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी थी। इसलिए वह द्रोपदी के साथ अभद्रता पर उतर आया। यह देखकर द्रोपदी ने जोर से चिल्लाकर अपने पतियों को आवाज लगा दी।
उस समय भीम और अर्जुन कुटी के पास के ही जंगल में थे। उन्होंने द्रोपदी का चिल्लाना सुना, तो तुरन्त कुटी की ओर दौड़े। खतरा देखकर जयद्रथ वहां से भाग खड़ा हुआ। जब दोनों भाई कुटी में पहुंचे तो द्रोपदी ने संक्षेप में जयद्रथ की करतूत उनको बता दी। यह सुनते ही दोनों जयद्रथ के पीछे भागे। वह अपने रथ से भाग रहा था। अर्जुन ने उसके रथ को दूर से देख लिया और अग्नि बाण छोड़कर रथ के आगे आग जला दी। इससे घोड़े रुक गये और भीम ने दौड़कर जयद्रथ को पकड़ लिया।
वे चाहते तो जयद्रथ का वहीं वध कर सकते थे, परन्तु वे उसे खींचकर द्रोपदी के पास लाये। तब द्रोपदी ने उसी के सामने उसकी सारी बातें बता दीं, तो भीम उसका वध करने को तैयार हो गये। लेकिन द्रोपदी ने भीम को रोक दिया और कहा कि इसको मारने से आपकी बहिन दुःशला विधवा हो जायेगी। इसलिए इसको मारो मत, कोई और दंड दे दो। द्रोपदी बहुत महान नारी थी। एक नारी की पीड़ा को वह समझती थी, इसलिए उसने जयद्रथ को जीवित छुड़वा दिया।
लेकिन छोड़ने से पहले भीम ने जयद्रथ के सिर पर से चौराहे के आकार में बाल साफ कर दिये और उसका मुंह भी काला कर दिया, जिससे वह कुरूप दिखने लगा। तब भीम ने उसे यह कहकर छोड़ा कि इस बार तो पांचाली के कहने से तुझे जीवित छोडे़ दे रहा हूँ, लेकिन अगर फिर कभी इधर झाँकने की भी हिम्मत की, तो यहीं तुम्हारी अंत्येष्टि कर दूँगा।
बुरी तरह अपमानित होने के बाद जयद्रथ वहां से चला गया और कहा जाता है कि पांडवों से अपने अपमान का बदला लेने के लिए तपस्या करने लगा।
इसी प्रकार खट्ठी-मीठी घटनाओं के बीच पांडवों का वनवास बीत रहा था और वे उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे जब वे आततायियों से अपने सभी अपमानों का बदला चुकता करेंगे। पांडवों की भीषण तपस्या और संयम के बारे में सोचते हुए भगवान श्रीकृष्ण बहुत भावुक हो गये।
(जारी…)
— डा विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , यह कहानी अछे संस्कारों से लदे पांडवों और बुरे संस्कारों से लदे कौरव के दर्मिआन लड़ाई है . एक बात तो साफ़ ज़ाहिर है कि उस समय भारत में जंगल ही जंगल होते थे , शैहर बहुत कम थे . जंगलों में शरण लेनी आसान थी किओंकि दुश्मन के लिए भी जाना आसान नहीं था . यह भी समझने की जरुरत है कि उस वक्त भी इंसान ऐसे ही थे जैसे युधिष्टर को जुआ खेलने की आदत थी . ऐग्ज़िक्त्ली ऐसे ही हमारे गाँव भी हुआ था जिस पर मैं कभी कहानी लिखूंगा . मज़ा आ रहा है , धन्यवाद
भाई साहब, टिप्पणी के लिए आभार. जंगलों के बारे में आपने जो लिखा है, सही है. अब ऐसे जंगल गायब हो गए हैं, जहाँ कोई केवल फलों पर जिन्दा रह सके.
लेकिन युधिष्ठिर के बारे में यह कहना सही नहीं है कि उनको जुआ खेलने की आदत थी. वे थोडा बहुत खेलना जानते थे, कोई लत नहीं थी. हस्तिनापुर वे अपने शौक के लिए नहीं बल्कि धृतराष्ट्र के आदेश पर जुआ खेलने गए थे.
जयद्रथ के साथ भीम ने जो किया वह सही था. महिलाओं का अपमान करने वालों के साथ आज भी ऐसा ही किया जाना चाहिए.
टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
आप बहुत अच्छा और रोचक उपन्यास लिख रहे हैं. आपने प्रत्येक घटना को बढ़ा-चढ़ाकर दिखने के बजाय सही रूप में दिखाया है. आगे की कड़ियों का इंतज़ार है.
धन्यवाद, भाई नीलेश जी.