उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (अठारहवीं कड़ी)

अब कृष्ण पांडवों के अज्ञातवास की अवधि की घटनाओं पर विचार करने लगे।

अज्ञातवास का समय पांडवों के वनवास का सबसे कठिन समय था। पूरे एक वर्ष तक उनको इस प्रकार रहना था कि वे पहचान न लिये जायें। अगर पहचान लिये जाते तो उनको फिर 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास करना पड़ता। वे किसी भी स्थिति में ऐसा करने से बचना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बहुत सावधानी और बुद्धिमानी से इसकी योजना बनायी। पांडवों की बुद्धिमत्ता के बारे में सोचकर कृष्ण का सिर उनके सम्मान में झुक गया।

युधिष्ठिर ने सबसे पहले तो अपने सभी अतिथियों से विदा ली, ताकि वे एकांत में अज्ञातवास के बारे में विचार कर सकें। सभी पांडवों ने आपस में विचार करके यह निश्चित किया कि अज्ञातवास में वे वैसे तो अलग-अलग रहेंगे और कभी एक साथ नहीं आयेंगे, लेकिन इतने निकट भी रहेंगे कि संकट के समय आपस में सम्पर्क बना सकें और एक-दूसरे की सहायता कर सकें। फिर उन्होंने यह निश्चय किया कि उन्हें हस्तिनापुर से अधिक दूर नहीं रहना है, क्योंकि किसी सुदूर प्रदेश में रहने पर वे अपने रंग-रूप और भाषा-बोली से अलग पहचाने जा सकते हैं। अतः उन्होंने हस्तिनापुर के किसी पड़ोसी राज्य में छद्म नाम से और छद्मवेश में रहना तय किया, जहां उनको पहचाना न जा सके।

बहुत विचार करने के बाद उन्हें विराटनगर में रहना सबसे अच्छा लगा, जिसकी सीमायें इन्द्रप्रस्थ से लगी हुई थीं और जहां के लोगों का रंग रूप, वेशभूषा आदि हस्तिनापुर जैसी ही थीं। उन्होंने वहां के राज दरबार में अलग-अलग जाकर अपने-अपने योग्य कार्य पाने का निश्चय किया। उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को किसी कपड़े में लपेटकर विराट नगर से बाहर जंगल में एक घने शमी वृक्ष की शाखाओं के बीच छिपा दिया, जिस पर सामान्यतया किसी की दृष्टि नहीं जा सकती थी और आवश्यकता होने पर वे तुरन्त उनको प्राप्त कर सकते थे।

महारानी द्रोपदी को केशसज्जा का अच्छा ज्ञान था, इसलिए उन्होंने परिचारिका के रूप में राजभवन में कार्य पाने की कोशिश की। इसमें वे सफल रहीं। वहां की रानी सुदेष्णा को एक परिचारिका की आवश्यकता भी थी, क्योंकि उसके भाई कीचक की गलत आदतों के कारण कोई परिचारिका वहाँ टिकती नहीं थी। द्रोपदी को इसका ज्ञान नहीं था, इसलिए उन्होंने वहां रहना स्वीकार कर लिया। वे राजमहल में इसलिए रहना चाहती थीं कि कम से कम लोगों की दृष्टि में आयें, नहीं तो उनके पहचाने जाने का डर था। उन्होंने अपना नाम सैरंध्री रखा था।

रानी सुदेष्णा ने सैरंध्री का स्वागत किया और पूछा कि पहले वे कहां और क्या करती थीं? सैरंध्री ने बताया कि मैं पहले द्रोपदी की केशसज्जा किया करती थी। अब वे वनवास में हैं इसलिए मैं काम ढूंढ़ती रहती हूं। उन्होंने बाल खुले रखने के बारे में भी पूछा, तो सैरंध्री ने कह दिया कि अपनी स्वामिनी द्रोपदी की देखादेखी मैं भी बाल खुले रखती हूं। रानी ने फिर ज्यादा पूछताछ नहीं की।

सम्राट युधिष्ठिर किसी विशेष कार्य में निपुण नहीं थे, लेकिन द्यूत विद्या के अच्छे ज्ञाता थे। राज दरबारों में ऐसे ज्ञाताओं का बहुत सम्मान होता था। इसलिए उन्होंने राजा विराट के दरबार में यही काम पाने का निश्चय किया। उन्होंने अपना नाम कंक रखा। कंक ने महाराज विराट के दरबार में जाकर अपने बारे में जानकारी दी और उनके यहां कार्य की याचना की। राजा विराट को बहुत अकेलापन अनुभव होता था, उन्होंने तत्काल कंक को अपने साथ द्यूत खेलने के कार्य पर रख लिया। इस प्रकार युधिष्ठिर भी छद्मवेश में वहां रहने लगे।

पांडवों को सबसे अधिक चिन्ता भीम की थी, जिनके भोजन की मात्रा दूसरों से कई गुना अधिक होती थी और उसकी व्यवस्था करना कठिन होता था। भीम को पाककला का ज्ञान था, इसलिए उन्होंने राजकीय पाकशाला में रसोइया की कार्य पाने का निश्चय किया। उनको भी सरलता से कार्य मिल गया और इस प्रकार एक बड़ी चिन्ता दूर हो गयी। अब वे पेट भरकर खा सकते थे।

अर्जुन ने अपने पिछले वनवास काल में गंधर्वों के साथ रहकर नृत्य और संगीत विद्या का ज्ञान प्राप्त किया था। अतः उन्होंने अपना नाम वृहन्नला रखकर गंधर्व महिला के रूप में नृत्य-संगीत शिक्षा देने का निश्चय किया। उनको भी राजकुमारी उत्तरा को नृत्य सिखाने का कार्य मिल गया। यद्यपि उनके निवास की व्यवस्था राजमहल से बाहर थी, परन्तु नृत्य सिखाने के लिए वे राजमहल में जाते थे और इस प्रकार से वे द्रोपदी के निकट ही रहते थे।

नकुल और सहदेव को पशुओं के बारे में अच्छा ज्ञान था। नकुल विशेष रूप से घोड़ों के बारे में बहुत जानते थे, इसलिए उनको राजा विराट की अश्वशाला में कार्य मिल गया। इसी प्रकार सहदेव को भी पशुशाला में पशुओं की देखरेख और उनकी चिकित्सा का कार्य प्राप्त हो गया।

इस प्रकार सभी पांडव अलग-अलग रहते हुए भी एक दूसरे से बहुत दूर नहीं थे और आवश्यकता पड़ने पर गुप्त रूप से मिल भी सकते थे। सदा सावधान और सशंकित रहते हुए वे अपने अज्ञातवास के दिन काट रहे थे। दिनों का हिसाब रखने का दायित्व मूलतः सहदेव के पास था, परन्तु महाराज युधिष्ठिर भी इनकी गणना करते थे। सभी ने आपस में यह निश्चय कर रखा था कि समय आने पर महाराज युधिष्ठिर के संकेत पर ही सभी स्वयं को प्रकट करेंगे।

(जारी…)

— डॉ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

5 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (अठारहवीं कड़ी)

  • अजीत पाठक

    पांडवों ने निश्चय ही अज्ञातवास कि योजना खूब सोच समझकर बनायी होगी. उपन्यास अच्छा लग रहा है.

  • शान्ति पुरोहित

    आपका उपन्यास बहुत अच्छा लग रहा है, विजय भाई. ऐसे ही लिखते रहिये.

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, बहिन जी. उपन्यास आपको अच्चा लगा, तो मेरा परिश्रम सफल रहा. अत्यंत व्यस्तता में दो दिन में एक कड़ी लिखने का समय निकाल पाता हूँ. इसी तरह लिखता रहूँगा.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , एक बात की मुझ को हैरानी होती है कि उस समय लोग बचनों के कितने पक्के होते थे कि अगर उन को बनवास हुआ ही है और एक वर्ष का अगिआत्वास भी तो उन को पूरा करना ही था . जैसा कि रामाएन्न में भी हुआ , रघुकुल रीत चली यह आई प्राण जाएं पर वचन ना जाई . यह लड़ाई सच और झूट की ही तो थी . पांडवों की सोच पर भी हैरानी होती है कि वोह अपने लोगों से दूर नहीं गए किओंकि जुबान और रंग से लोग पैह्चाने जा सकते हैं . इस की एक उधाहरण है पहले पहल जब हमारे भारती इंग्लैण्ड और अम्रीका जाते थे तो बहुत वर्षों बाद जब वोह इंडिया आते थे तो लोग उन को आसानी से पेहचान लेते थे कि यह शख्स बाहिर से आया है बेशक वोह भारती ही होता था . कथा अच्छी है .

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, गुरमेल सिंह भाई साहब. उस समय भीष्म, कर्ण, भीम, अर्जुन जैसे वचनों का पालन करने वाले थे, तो तोड़ने वाले भी होते थे. दुर्योधन ने कभी अपना वचन पूरा नहीं किया. उसका सारा जीवन क=झूठ और अहंकार पर टिका हुआ था.
      अज्ञातवास की योजना बनाने में पाडवों ने बहुत बुद्धिमानी दिखाई थी. यह सम्राट युधिष्ठिर की बुद्धि का कमाल था. आपको उपन्यास अच्छा लग रहा है, जानकर संतोष हुआ. आगे की कथा और भी रोचक है.

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