एक खीझ सी उठती है… मन के सरवर मेँ उठता झंझावर
एक खीझ सी उठती है,
उन घर के मलबोँ के आगे सूरज खिलता है,
सड़ती बस्ती के ऊपर जब चाँद तना मिलता है,
बिखरे से घरोँ मेँ जब त्यौहार कोई होता है,
मरती कलियोँ के दुक्ख मेँ पेड़ खडा रोता है,
एक खीझ सी उठती है…
कीचड़ के कोनोँ मेँ विष्ठा तैरती है,
समाज के आईने मेँ जब निष्ठा तैरती है,
सिसकियां लेती है जब पवन धरती पर आकर,
उठ जाती है चीखती नन्ही एकदम घबराकर,
एक खीझ सी उठती है…
कफ़न उड़ जाते हैँ मुर्दा से दिलोँ के,
तब सहानुभूति देने निकलते चूहे बिलोँ के,
काँपती हैँ नंगी जब किसी पेड़ की कटी डालेँ,
या जब तडप उठती हैँ दरिँदगी से उतरी छालेँ,
एक खीझ सी उठती है…
पत्थर पर सर पटककर मिलता नहीँ ईश्वर,
तीरथ मेँ घिसट घिसट मन खिलता नहीँ क्षणभर,
फूँक मारकर कोई जमीनेँ लूट लेता है,
तन तोडता किसान जब हृदय कूट लेता है,
एक खीझ सी उठती है…
चीखते से चीत्कारते जीवोँ का मर्दन,
पेट की आग मेँ झुलसे निर्दोष का क्रंदन,
झिझकता सा बूढा पेड़ पर्वत को कटता देखे,
या बाप कोई आँखोँ के आगे घर की अस्मत लुटता देखे,
एक खीझ सी उठती है…
अब पुण्य के शीशोँ पर पाप नज़र आते हैँ,
चंदन से लिपटे सब जहरीले साँप नज़र आते हैँ,
अंधे घृतराष्ट्रोँ ने दुर्योधन को ही चाहा है,
जकड़ी जंजीरोँ मेँ स्वतंत्रता स्वप्न स्वाहा है,
हृदयोँ की ज्वाला से फिर चिँगारी उठने दो,
लाज द्रोपदी की दुशासनोँ से ना लुटने दो,
एक खीझ सी उठती है…
___सौरभ कुमार दुबे
आप सबका आभार
यह खीझ आपके ही नहीं सबके मन में है. कविता पसंद आई.
बहुत बढ़िया कविता लिखी है, सौरभ जी.
बहुत आक्रोश है आपकी कविता में.