कविता

एक खीझ सी उठती है… मन के सरवर मेँ उठता झंझावर

एक खीझ सी उठती है,
उन घर के मलबोँ के आगे सूरज खिलता है,
सड़ती बस्ती के ऊपर जब चाँद तना मिलता है,
बिखरे से घरोँ मेँ जब त्यौहार कोई होता है,
मरती कलियोँ के दुक्ख मेँ पेड़ खडा रोता है,
एक खीझ सी उठती है…

कीचड़ के कोनोँ मेँ विष्ठा तैरती है,
समाज के आईने मेँ जब निष्ठा तैरती है,
सिसकियां लेती है जब पवन धरती पर आकर,
उठ जाती है चीखती नन्ही एकदम घबराकर,
एक खीझ सी उठती है…

कफ़न उड़ जाते हैँ मुर्दा से दिलोँ के,
तब सहानुभूति देने निकलते चूहे बिलोँ के,
काँपती हैँ नंगी जब किसी पेड़ की कटी डालेँ,
या जब तडप उठती हैँ दरिँदगी से उतरी छालेँ,
एक खीझ सी उठती है…

पत्थर पर सर पटककर मिलता नहीँ ईश्वर,
तीरथ मेँ घिसट घिसट मन खिलता नहीँ क्षणभर,
फूँक मारकर कोई जमीनेँ लूट लेता है,
तन तोडता किसान जब हृदय कूट लेता है,
एक खीझ सी उठती है…

चीखते से चीत्कारते जीवोँ का मर्दन,
पेट की आग मेँ झुलसे निर्दोष का क्रंदन,
झिझकता सा बूढा पेड़ पर्वत को कटता देखे,
या बाप कोई आँखोँ के आगे घर की अस्मत लुटता देखे,
एक खीझ सी उठती है…

अब पुण्य के शीशोँ पर पाप नज़र आते हैँ,
चंदन से लिपटे सब जहरीले साँप नज़र आते हैँ,
अंधे घृतराष्ट्रोँ ने दुर्योधन को ही चाहा है,
जकड़ी जंजीरोँ मेँ स्वतंत्रता स्वप्न स्वाहा है,
हृदयोँ की ज्वाला से फिर चिँगारी उठने दो,
लाज द्रोपदी की दुशासनोँ से ना लुटने दो,
एक खीझ सी उठती है…

___सौरभ कुमार दुबे

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

4 thoughts on “एक खीझ सी उठती है… मन के सरवर मेँ उठता झंझावर

  • जगदीश सोनकर

    यह खीझ आपके ही नहीं सबके मन में है. कविता पसंद आई.

  • शान्ति पुरोहित

    बहुत बढ़िया कविता लिखी है, सौरभ जी.

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत आक्रोश है आपकी कविता में.

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