क्या सुनी आज तुमने चाँद की सिसकियाँ?
क्या सुनी आज तुमने चाँद की सिसकियाँ?
आज आर्यावर्त के उत्तरी कोने मेँ चाँद छिपा रो रहा था,
बार बार सिसकता,
बारिश मेँ ठिठुरता,
आँसुओँ का बोझ ढो रहा था,
क्या सुनी आज तुमने चाँद की सिसकियाँ?
फिर थरथराते बादलोँ के बीच छिपता चाँद,
जैसे बचने धरती के कोलाहल से मिल गयी हो मांद,
खाक छानता अंबर पर,
ढूँढता फिरता शांति का घर,
अपने आँसुओँ को बारिश के गड्ढो मेँ डूबो रहा था,
क्या सुनी आज तुमने चाँद की सिसकियाँ?
कुछ तो खटकती थी आज उसकी रोशनी,
जम गयी थी आज बदलियोँ के बीच जैसे चासनी,
थपथपती पीठ बिजली,
पर गरजती घोर बदली,
तिमिर की छाया मेँ उसका रंग काला हो रहा था,
क्या सुनी आज तुमने चाँद की सिसकियाँ?
___सौरभ कुमार दुबे
बेहतर, भाई.
बहुत सुन्दर कविता.
अच्छी कविता. बधाई !
सौरव जी , कविता बहुत अच्छी है
प्रणाम, अंकल जी. आभार ! आपका आशीर्वाद है.