छलावा- छंदमुक्त रचना
मरीचिका में बैठे
कितने खुश हैं हम
व्योम से वसुंधरा तक
यथार्थ से स्वप्न तक
खुद को छलते हम
कितने खुश हैं हम
व्योम से वसुंधरा तक
यथार्थ से स्वप्न तक
खुद को छलते हम
नभ में नीरद चलता है
हमने समझा चाँद चला
उषा से सांध्य तक
धरती चलती रहती
हमने समझा सूर्य ढला
रेल के डब्बे में भागते हम
लगता है प्लेटफोर्म चला
खुद को छलते हम
हमने समझा चाँद चला
उषा से सांध्य तक
धरती चलती रहती
हमने समझा सूर्य ढला
रेल के डब्बे में भागते हम
लगता है प्लेटफोर्म चला
खुद को छलते हम
स्वप्न की मरीचिका
सुखद है एहसास
मगर पूर्ण करने की
डगर है कठिन
संस्कार मधुर सलोने
निभाना है नहीं सरल
खुद को छलते हम
सुखद है एहसास
मगर पूर्ण करने की
डगर है कठिन
संस्कार मधुर सलोने
निभाना है नहीं सरल
खुद को छलते हम
मिलता है जीवन
खोजते मंजिल
बढ़ते कदम
उम्र के साथ
मौत हमारी ओर नहीं आती
हम बढ़ जाते मौत की ओर
खुद को छलते हम
खोजते मंजिल
बढ़ते कदम
उम्र के साथ
मौत हमारी ओर नहीं आती
हम बढ़ जाते मौत की ओर
खुद को छलते हम
*ऋता शेखर ‘मधु’*
अच्छी रचना है ……परन्तु ऋता जी …यह भी एक छलावा व भ्रम है कि … छंदमुक्त रचना .. …..कोइ भी काव्य रचना छंदमुक्त कैसे हो सकती है .वह तो गद्य रचना होगी…….हाँ छंद तुकांत या अतुकांत होसकता है , मुक्तछंद रचना होसकती है ….. इसे अतुकांत..मुक्तछंद रचना कहा जायगा…..
जी सर…जानकारी देने के लिए सादर आभार !!
बहुत अच्छी कविता है, ऋता दी !
शुक्रिया शान्ति जी !!
मौत हमारी ओर नहीं आती
हम बढ़ जाते मौत की ओर………..वाह अतिउत्तम रचना
शुक्रिया अभिवृत जी !!
उत्तम रचना।
उत्साहवर्धन हेतु सादर आभार !!
अति उत्तम रचना….इसपर टिपण्णी करने के लिए शब्द नहीं है! श्रेष्ठ रचना !!
उत्साहवर्धन हेतु शुक्रिया !!