कविता

छलावा- छंदमुक्त रचना

मरीचिका में बैठे
कितने खुश हैं हम
व्योम से वसुंधरा तक
यथार्थ से स्वप्न तक
खुद को छलते हम
नभ में नीरद चलता है
हमने समझा चाँद चला
उषा से सांध्य तक
धरती चलती रहती
हमने समझा सूर्य ढला
रेल के डब्बे में भागते हम
लगता है प्लेटफोर्म चला
खुद को छलते हम
स्वप्न की मरीचिका
सुखद है एहसास
मगर पूर्ण करने की
डगर है कठिन
संस्कार मधुर सलोने
निभाना है नहीं सरल
खुद को छलते हम
मिलता है जीवन
खोजते मंजिल
बढ़ते कदम
उम्र के साथ
मौत हमारी ओर नहीं आती
हम बढ़ जाते मौत की ओर
खुद को छलते हम
*ऋता शेखर ‘मधु’*

10 thoughts on “छलावा- छंदमुक्त रचना

  • डॉ श्याम गुप्त

    अच्छी रचना है ……परन्तु ऋता जी …यह भी एक छलावा व भ्रम है कि … छंदमुक्त रचना .. …..कोइ भी काव्य रचना छंदमुक्त कैसे हो सकती है .वह तो गद्य रचना होगी…….हाँ छंद तुकांत या अतुकांत होसकता है , मुक्तछंद रचना होसकती है ….. इसे अतुकांत..मुक्तछंद रचना कहा जायगा…..

    • ऋता शेखर 'मधु'

      जी सर…जानकारी देने के लिए सादर आभार !!

  • शान्ति पुरोहित

    बहुत अच्छी कविता है, ऋता दी !

    • ऋता शेखर 'मधु'

      शुक्रिया शान्ति जी !!

    • ऋता शेखर 'मधु'

      शुक्रिया अभिवृत जी !!

  • विजय कुमार सिंघल

    उत्तम रचना।

    • ऋता शेखर 'मधु'

      उत्साहवर्धन हेतु सादर आभार !!

  • अति उत्तम रचना….इसपर टिपण्णी करने के लिए शब्द नहीं है! श्रेष्ठ रचना !!

    • ऋता शेखर 'मधु'

      उत्साहवर्धन हेतु शुक्रिया !!

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