बरखा रानी – एक अरदास
तरसे मन तुम्हें मिलने को, आओ न बरखा रानी
आग उगल रहा सूर्य, बरसाओ तुम्हीं शीतल पानी
त्रस्त हुए जीव धरा के, बढी जा रही है व्याकुलता
करो तुम्हीं तृप्त काया, याद सभी को आयी नानी
सूखे सभी ताल-तलैया,भटकते हैं पंछी बिन पानी
गर्मी झुलसाये तन-मन,दिनकर कर रहा मनमानी
सब ढूंढते तरवर छाया, वनस्पति भी है कराह रही
उमड-घुमड़कर यूं बरसो, ओढ ले धरा चुनर धानी
खोज रहे सब शीतलता, घूम रहे मंजिल अन्जानी
लू – थपेड़ों से बचने को, प्रयास-रत हैं सभी प्राणी
निकल न जायें प्राण कहीं, छिपते सभी हैं फिर रहे
बहा जटाओं से गंगा, कल्याण करो हे औघड़ दानी
आपका गीत पसंद आया, सुधीर जी.
शान्ति जी हार्दिक आभार
अच्छी सामयिक कविता
समय की आवश्यकता पर लिखे चंद मनोभावों को पसंद करने के लिये सादर धन्यवाद