दो मुक्तक
हो गम की रात, आँखों ही आँखों में गुज़र जाने दो
दर्द के दरिया को अपनी हद से गुजर जाने दो
दिया उम्मीद का जीवन में सदा जलाए रखना
बेरहम वक्त का भयावह तूफ़ान तो थम जाने दो ।
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अश्क बहे जब जब मेरे सावन की झरी भी शरमाई
दरिया में बहते बहते राते कितनी ही जागकर बिताई
जिए जा रहे याद में, आरजू है कि मरने भी देती नही
उलझनों में उलझ गयी जिंदगी, रूह फिर भी है हर्षाई ।
shukriya saurabh dubey ji
thanx shanti di
aabhar vijay bhai ji
गुंजन जी, आपके मुक्तक बहुत अच्छे लगे। मुक्तक तो मुक्त ही होता है।
अच्छे मुक्तक।
सुन्दर मुक्तक लिखे हैं जी आपने