सुख का अधिकार
हथेली खुरदरी, वज़न कम नहीं
उठाती, पर न उठा सके ।
आँखें धँसीं, वेदना से भरी
झेलती, पर न झेल सके ।
निगाहें सूखीं, ख्वाहिशें बसीं
हज़ारों कोशिशें, पर जैसे-तैसे ।
जीवन है संघर्ष।
लड़ती लड़ती, आँसू मिलते।
आँसू के उस सागर में
डूबे इसकी क़िसमत पे
पतवार चलाते कतिपय मानव
खुशी-सुखी से, ऐयाशी से
धारण किये मुलायम कपड़े
लगाते सीने रुई के तकिये
चढ़कर ऊँची हवेलियों पर
परिहास टपकती, घृणा चमकती
उनकी नज़रें, ओर हैं इसकी
मगर उन्हें न पता ।
सुख का अधिकार उसने दिया
जो सुखी से जीवन-संघर्ष लड़ती
लहू की दरिया में डुबकिया लेती
हाँ,
दुआ की बाती में क़िसमत खोजती
डी. डी. धनंजय वितानगे
श्री लंका
बहुत अच्छे
behtreen rachna ..badhaayi
अच्छी कविता है, धनंजय जी. आगे आपसे और भी बेहतर कविताओं की आशा है.