कविता

सुख का अधिकार 

हथेली खुरदरी, वज़न कम नहीं

उठाती, पर न उठा सके ।

आँखें धँसीं, वेदना से भरी

झेलती, पर न झेल सके ।

निगाहें सूखीं, ख्वाहिशें बसीं

हज़ारों कोशिशें, पर जैसे-तैसे ।

जीवन है संघर्ष।

लड़ती लड़ती, आँसू मिलते।

आँसू के उस सागर में

डूबे इसकी क़िसमत पे

पतवार चलाते कतिपय मानव

खुशी-सुखी से, ऐयाशी से

धारण किये मुलायम कपड़े

लगाते सीने रुई के तकिये

चढ़कर ऊँची हवेलियों पर

परिहास टपकती, घृणा चमकती

उनकी नज़रें, ओर हैं इसकी

मगर उन्हें  न पता ।

सुख का अधिकार उसने दिया

जो सुखी से जीवन-संघर्ष लड़ती

लहू की दरिया में डुबकिया लेती

हाँ,

दुआ की बाती में क़िसमत खोजती

 

डी. डी. धनंजय वितानगे

श्री लंका

3 thoughts on “सुख का अधिकार 

  • गुंजन अग्रवाल

    behtreen rachna ..badhaayi

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता है, धनंजय जी. आगे आपसे और भी बेहतर कविताओं की आशा है.

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