उपन्यास : शान्तिदूत (इक्कीसवीं कड़ी)
राजा विराट ने विराट नगर के पास ही उपप्लव्य नगर में पांडवों के निवास का स्थान दे दिया था। वहीं शिविरों में पांडवों ने अपनी अस्थायी राजधानी बना ली थी। वहीं एक बड़े कक्ष में सम्राट युधिष्ठिर की राजसभा बुलायी गयी। कृष्ण को राजसभा की कार्यवाही पूरी तरह स्मरण थी।
राजसभा के मध्य में सम्राट युधिष्ठिर बैठे थे। उनके एक ओर स्वयं भगवान कृष्ण विराजमान थे। उसी ओर उनके निकट बलराम, अर्जुन, धृष्टद्युम्न, उत्तर, अभिमन्यु तथा कुछ पांचाल राजकुमार थे। दूसरी ओर महाराज द्रुपद, राजा विराट, भीम, नकुल, सहदेव अपने-अपने आसनों पर बैठे थे। पीछे की पंक्तियों में पांडवों के सभी पुत्र तथा अन्य राजकुमार बैठे थे।
युधिष्ठिर के संकेत पर कार्यवाही प्रारम्भ हुई। सबसे पहले राजकुमार उत्तर ने उठकर कहा कि आप सबको ज्ञात ही है कि पांडवों ने द्यूत की शर्तों के अनुसार 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास सफलता से पूर्ण कर लिया है। अब न्याय के अनुसार उनको उनका इन्द्रप्रस्थ का राज्य पुनः मिल जाना चाहिए। उसको वापस लेने के लिए क्या किया जाये, इस पर विचार विमर्श के लिए यह राजसभा बुलायी गयी है। आप सब अपना-अपना विचार रखें कि महाराज युधिष्ठिर को क्या करना उचित होगा।
उनकी बात पूरी होते ही युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर धृष्टद्युम्न खड़े हुए और बोले कि दुर्योधन से न्याय की कोई आशा करना व्यर्थ है। वह सीधी तरह कभी हमारा राज्य नहीं देगा, इसलिए हमें तत्काल युद्ध की घोषणा कर देनी चाहिए और उसकी तैयारियाँ प्रारम्भ कर देनी चाहिए। सभा में बैठे हुए भीम, अर्जुन आदि कई सभासदों ने भी अपनी सहमति में सिर हिलाये।
धृष्टद्युम्न की बात समाप्त होते ही युधिष्ठिर ने महाराज विराट से निवेदन किया कि आप अपने विचार रखें। इस पर विराट ने उठकर कहा- ‘मैं पांचाल राजकुमार की बात से सहमत हूँ। दुर्योधन की दुष्टता की कोई सीमा नहीं है। उसने धर्मराज युधिष्ठिर और उनके पूरे परिवार को इतना कष्ट दिया है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उससे कोई याचना करना निष्फल ही होगा। इसलिए हमें एक भी दिन का समय नष्ट किये बिना युद्ध की तैयारियाँ तत्काल प्रारम्भ कर देनी चाहिए और हस्तिनापुर पर आक्रमण करना चाहिए।’
उनके निकट बैठे हुए महाराज द्रुपद सहित अनेक व्यक्तियों के सिर सहमति में हिले। उनके बाद कई व्यक्तियों ने उठकर विभिन्न शब्दों में अपना वही मत प्रकट किया, जो राजकुमार धृष्टद्युम्न और महाराज विराट पहले ही व्यक्त कर चुके थे।
इन सबकी बात सुनते हुए बलराम क्रोध में उबल रहे थे। द्रुपद के बैठते ही उन्होंने खड़े होकर कहा- ‘यहाँ बैठे हुए सभी लोग युद्ध के लिए लालायित लगते हैं। आप सब लोग दुर्योधन के ऊपर दुष्टता का आरोप लगा रहे हैं, लेकिन यह क्यों भूल रहे हैं कि अपनी दुर्दशा के लिए युधिष्ठिर सहित सभी पांडव स्वयं उत्तरदायी हैं। इन्होंने अपने राज्य, भाइयों और पत्नी को भी जुए में दाँव पर लगाकर घोर पाप किया था, जिसका परिणाम ये भुगत रहे हैं।
कौरवों से युद्ध करना सरल नहीं है। उनके पक्ष में पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य, अंगराज कर्ण जैसे योद्धा हैं। स्वयं युवराज दुर्योधन बहुत वीर हैं। इनका सामना करने की सामर्थ्य पांडवों के पक्ष में किसकी है? युद्ध से हमें कुछ मिलने वाला नहीं है। इसलिए हमें युद्ध का विचार त्यागकर दूत भेजकर उनसे राज्य की याचना करनी चाहिए। सम्भव है कि पांडवों के कष्ट को ध्यान में रखते हुए वे इनको इन्द्रप्रस्थ लौटाने पर सहमत हो जायें।’
बलराम की बात सभी को तीर की तरह चुभ रही थी, परन्तु उनकी वरिष्ठता को ध्यान में रखते हुए कोई कुछ नहीं बोला और सम्राट युधिष्ठिर की ओर देखते रहे। अपने मन की भड़ास निकालकर बलराम अपनी जगह बैठ गये।
श्रीकृष्ण अभी तक कुछ नहीं बोले थे। वे दूसरों की बात को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। जब सभी वरिष्ठ लोग अपनी-अपनी बात कह चुके, तो युधिष्ठिर को याद आया कि भगवान श्रीकृष्ण ने तो अपना मत दिया ही नहीं। इसलिए उन्होंने कृष्ण से निवेदन किया कि आप यहाँ उपस्थित सभी व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ हो। आप अपने विचार व्यक्त कीजिए कि हमें क्या करना चाहिए।
श्रीकृष्ण ने उठकर कहा- ‘पांचाल कुमार और महाराज विराट ने जो मत व्यक्त किया है, वह अपनी जगह उचित है। भ्राताश्री के कहने में भी तथ्य है। हम सब जानते हैं कि दुर्योधन दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति है। यद्यपि कौरव राजसभा में पितामह भीष्म, महात्मा विदुर, आचार्य द्रोण और कृपाचार्य जैसे महानुभाव धार्मिक और न्यायशील प्रकृति के हैं, लेकिन वे सब दुर्योधन के सामने विवश हो गये हैं और उनके कथन का अधिक महत्व नहीं होता। इसलिए हमें युद्ध करना ही पड़ेगा, क्योंकि दुर्योधन किसी भी स्थिति में पांडवों को उनका अधिकार सरलता से नहीं देगा।
इतना स्पष्ट होने पर भी परम्परा और न्याय के लिए यह आवश्यक है कि युद्ध की घोषणा करने से पहले हमें कौरवों के पास अपना दूत भेजकर न्याय की माँग करनी चाहिए। इससे दो लाभ होंगे। एक तो किसी को यह कहने का कोई कारण नहीं मिलेगा कि पांडवों ने कौरवों को न्याय करने का अवसर नहीं दिया और सीधे युद्ध की घोषणा कर दी। दूसरे, दूत भेजने और उसके लौटने की प्रतीक्षा करने से हमें युद्ध की तैयारी के लिए अधिक समय मिल जाएगा।
इसलिए हमें किसी बुद्धिमान और सम्मानित विद्वान् ब्राह्मण को अपना दूत बनाकर कौरवों के पास भेजना चाहिए। इसके साथ ही हमें युद्ध की तैयारियाँ प्रारम्भ कर देनी चाहिए और अस्त्र-शस्त्रों का भंडार बनाना चाहिए।’
भगवान श्रीकृष्ण की बात सभी को अच्छी लगी। अतः महाराज युधिष्ठिर ने उठकर कहा कि भगवान श्रीकृष्ण ने जो कहा है हम सभी उससे सहमत हैं। इससे अच्छा विचार दूसरा नहीं हो सकता। अब आप लोग यह विचार कीजिए कि हम किस व्यक्ति को अपना दूत बनाकर भेज सकते हैं। इस पर महाराज द्रुपद ने कहा कि ऋषि धौम्य पांडवों के पुरोहित भी हैं और बहुत विद्वान् हैं। वे हमारी बात को अधिक अच्छी तरह कौरवों की राजसभा में रख सकते हैं, इसलिए उनको ही दूत बनाकर भेजना चाहिए।
महाराज द्रुपद की यह सलाह सबको बहुत पसन्द आयी। अतः धौम्य को दूत बनाकर भेजने का निश्चय किया गया। उनको राजसभा में बुलाकर सभी बातें समझायी गयीं और उनकी सुरक्षा हेतु दो सैनिकों के साथ उनको हस्तिनापुर भेज दिया गया। इसके साथ ही सभी मित्र राजाओं को युद्ध में सहायता हेतु बुलाने के लिए दूत भी भेज दिये गये।
इधर भीम, धृष्टद्युम्न और उत्तर को विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण कराने और उनका उचित रूप में भंडारण करने का दायित्व दिया गया। सहदेव और नकुल को युद्ध हेतु घोड़ों के रखरखाव का प्रबंध देखने का कार्य दिया गया। अर्जुन और अभिमन्यु सहित अन्य राजकुमारों ने सैनिक टुकड़ियों को संगठित और प्रशिक्षित करने का कार्य संभाला। सभी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो गये।
(जारी…)
— डॉ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
रोचक रूप में प्रस्तुत किया है भैया आपने …सादर नमस्ते
महाभारत अपने आप में बहुत रोचक महाकाव्य है. उस पर आधारित हर उपन्यास रोचक होता है. लेकिन आपका प्रस्तुतीकरण इसे और अधिक रोचक बना रहा है. इसी प्रकार लिखते रहिये, भाई जी.
धन्यवाद, बहिन जी.
विजय भाई , हर एक ने अपना अपना पक्ष रखा जिस का उन्हें अधिकार था , लेकिन बलराम अपनी जगह सही था किओंकि जुआ तो चलो उन्हें खेलना पड़ा लेकिन अपनी वाइफ को दाव पर लगाना एक पड़े लिखे सूझवान के लिए बिलकुल उचित नहीं था . मैं मानता हूँ उस वक्त युधिष्टर के मन में यही आया होगा कि दरोपदी को आख़री दाव पर लगाने से उन को सब कुछ वापिस मिल जाएगा लेकिन मिलना तो एक तरफ उन्होंने अपनी पत्नी को भी खो दिया . जो कुछ हो चुक्का है उस को हम कुछ नहीं कर सकते लेकिन एक बात तो ज़ाहिर ही है कि इस्त्री को कभी भी उस का उचित स्थान नहीं मिला . रामाएन्न में भी सीता को अपने पती के साथ १४ वर्ष गुज़ारने के बाद भी किसी धोबी की बात सुन कर सीता को बनवास में भेज देना कहाँ तक ठीक है ?
टिप्पणी के लिए आभार, भाई साहब.
युधिष्ठिर ने द्रोपदी को इस आशा से दांव पर नहीं लगाया होगा कि सब कुछ वापस मिल जायेगा. वे हर दांव हार रहे थे, तो आखिरी दांव जीतने की आशा उनको शायद ही रही होगी. मेरे विचार से युधिष्ठिर ने यह सोचा होगा कि जब हम सब कुछ हार जायेंगे, तो कुरुवंश के सेवक के रूप में जिंदगी गार लेंगे और संघर्ष से बच जायेंगे, जिसकी संभावना बल्कि भविष्यवाणी भगवन वेड व्यास ने की थी. इसीलिए वे सारा अपमान सहन कर गए. लेकिन उनको यह आशंका बिलकुल नहीं थी कि द्रोपदी को भरी सभा में नग्न करने की कोशिश की जाएगी. दुर्योधन इतना कमीना और दुष्ट है, यह उनको ज्ञात नहीं था.
राम के चरित्र के बारे में यह कहना सही नहीं है कि उन्होंने सीता को धोबी के कहने पर वनवास दिया था. मेरे एक मित्र और युवा सुघोष के लेखक श्री बिपिन किशोर सिन्हा जी ने अपनी एक पुस्तक में यह सिद्ध किया है कि ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं थी. यह काल्पनिक प्रसंग है, जो धूर्तों ने राम के चरित्र को कलंकित करने के लिए जोड़ दिया है.
जितना दोष दुर्योधन का था मुझे लगता है की उतना ही न सही पांडवो का भी दोष तो था ही … कौन धर्मराज अपनी पत्नी को डाव पर लगाता है …. जब उन्हें मालूम था की दुर्योधन दुष्ट प्रवृति का है तो उन्हें उसका द्यूत निवेदन असविकार कर देना चाहिए था …. खैर विजय कुमार जी आपने बखूबी बयान किया है है पक्ष को … बधाई .. सादर
मैं आपसे सहमत नहीं हूँ प्रवीन जी। युधिष्ठिर को द्यूत खेलने का निमंत्रण नहीं आदेश मिला था, धृतराष्ट्र का। वे उसे अस्वीकार नहीं कर सकते थे। हाँ भाइयोंऔर पत्नी को दाँव पर लगाना ग़लत था। लेकिन इसका पर्याप्त दंड उनको मिल गया। उनका पक्ष न्याय का था।
टिप्पणी के लिए आभार।
Sateek anklan ke liye sadhuvad aur badhai. Actually problems are of two types. One is that astik persons do not feel any need to understand. Second is that persons who wish to understand do not pay sufficient time to understand the web of circumstances present over time and space. In case they try to analyse in totality and do sufficient CHINTAN MANAN as well, they can very well understand the flawless logic of both the great epics i e Ramayan and Mahabharat. Nevertheless, one must understand that the prime SANDESH of both the epics is that man, how much great he is, is always flawful; and the almighty GOD even if taken birth in man’s YONI is always flawless.
With regards, Rajnish .
बहुत-बहुत धन्यवाद, रजनीश जी. आपकी टिप्पणी पूरी तरह सत्य है.