हमें कुछ लोग कहते हैं
मैं माफ़ी चाहता हूँ, मुनव्वर राणा साहब से, क्योंकि इस ग़ज़ल का रदीफ़ और काफ़िया उन्हीं की एक ग़ज़ल से ताल्लुक रखता है.
हमें कुछ लोग कहते हैं, के हम परेशानी में रहते हैं.
उन्हें कैसे बताएं हम, के वीरानी में रहते हैं.
जगा दे रूह को जो वो तो आहट होती ही रहती.
मगर हम हैं जुदा, अपनी ही रवानी में रहते हैं.
कहीं पर बाढ़ है, धरती कहीं खिसकने लगी है.
यहाँ पर लोग सभी, दुखों की सानी में रहते हैं.
कहीं कुछ होता रहे, अपने में ही मग्न जो रहें.
यही बचपन (बच्चे) हैं, जो यादें सयानी में रहते हैं.
बुढ़ापा चढ़ गया, हर ओर बदहाली के बादल हैं.
मगर कुछ लोग अब भी अपनी जवानी में रहते हैं.
सुने किस्से बहुत हमने वो लैला और मजनू के.
है ज़िंदा इश्क अब भी, या फिर हम कहानी में रहते हैं.
-अश्वनी कुमार
सुन्दर
वाह…बहुत खूब
शुक्रिया सर!!!
बहुत अच्छी ग़ज़ल, अश्वनी जी.
गुरु जी बहुत शुक्रिया…!!! और पत्रिका में मेरी ग़ज़ल और कहानी को स्थान देने के लिए मैं आपका धन्यवाद करता हूँ.