एक सिक्के का दो पहलू …. आशा और निराशा
ऋतु की अनुभूति और उसकी अभिव्यक्ति
अपनी निजी अवस्था पर निर्भर होती होगी ना
जैसे एक सिक्के का दो पहलू
आशा और निराशा
एक ही वस्तु को देखने का अलग अलग नजरिया
प्रिया संग साजन हैं
तो
काग की बोली भी मधुर लगती है
अगर ना हों
तो
पिंडुकी गान भी
सौतन की बोली लगती है …..
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एक रूप
धरा पर बैनीआहपीनाला ने ली अंगराई
छलकाती यौवन मदमस्त प्रकृति आई
जलज ताल विमुख प्यासी सूनी राह निहारे
विरह वेदना में व्याकुल सखियाँ बौराई
पी संग नहीं तो ये छटा किस काम आई
सरसों-पलाश को देख मन भारी हो आया
सिंदूरी आस पर पीले अवसाद काढ़ आई
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दूसरा रूप
मदन-सम्मोहन से फलीभूत धरा गदराई
वैनीआहपीनाला की अद्धभूत छटा लहराई
धवल कमल बाग-ताल में चार चाँद लगा रहे
मधुराज तितली की मैराथन से गूँज रही अमराई
कान्त मिलन की सिंदूरी आस लिए कांता अकुलाई
अभीष्ट खिले राह निहारती स्वगत ढाढ़स बंधा रही
चारो तरफ हंसी बिखरी देख सखियाँ खिलखिलाई
वै नी आ ह पी ना ला (इन्द्रधनुष)
बहुत अच्छी कविता।
आभार आपका …. बहुत बहुत धन्यवाद