उपन्यास : शान्तिदूत (पच्चीसवीं कड़ी)
पांडवों की ओर से सन्धि का प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर जाने का निश्चय कर लेने के बाद कृष्ण इस बात पर विचार करने लगे कि उन्हें अपने साथ क्या-क्या और किसको ले जाना चाहिए। कृष्ण सोचने लगे कि क्या सेना ले जाना उचित होगा? नहीं, मैं शान्ति स्थापना के लिए संधि प्रस्ताव लेकर जा रहा हूँ, युद्ध करने नहीं, इसलिए सेना ले जाना उचित नहीं होगा। वैसे भी मेरी सेना कौरवों के पक्ष में लड़ने के लिए पहले ही जा चुकी है और कुरुक्षेत्र के निकट ही कहीं पड़ाव डाले पड़ी होगी। उसको साथ ले जाने का प्रश्न ही नहीं है।
परन्तु कौरवों के पास जाते समय मुझे कुछ सुरक्षा व्यवस्था अवश्य करनी चाहिए और एक साथी भी अवश्य ले जाना चाहिए। यद्यपि कौरव मेरा बहुत सम्मान करते हैं और उनकी राजसभा में मुझे अपना अनिष्ट होने की कोई आशंका नहीं है। फिर भी दुर्योधन की दुष्ट प्रवृत्ति को देखते हुए, मुझे अपनी सुरक्षा का पूर्व प्रबंध अवश्य कर लेना चाहिए।
यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि मैं इस समय पांडवों का सबसे बड़ा सहायक हूँ। दुर्योधन और उसके साथी भी यह बात भली प्रकार जानते हैं। इसलिए यदि पांडवों को युद्ध से पहले ही हतोत्साहित करने के लिए वे मुझे हानि पहुँचाने का प्रयास करना चाहें, मेरा अपहरण करना चाहें या मेरे प्राण ही लेने की कोशिश करें, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। धर्मपालन में उनकी कोई निष्ठा नहीं है, यह बात अनेक बार सिद्ध हो चुकी है। इसलिए इस युद्ध को अधर्मपूर्वक जीतने के लिए वह मुझे हानि पहुँचाने का और यदि सम्भव हुआ तो बन्दी बना लेने का प्रयास अवश्य करेंगे। इसलिए मुझे पूरी तरह तैयार होकर जाना चाहिए।
वैसे तो मैं किसी भी प्रकार के संकट से अपनी रक्षा करने में पूर्ण समर्थ हूँ, लेकिन यदि कौरवों ने मुझे शारीरिक हानि पहुँचाने अथवा बन्दी बनाने का प्रयास किया और उसमें सफल हो गये, तो फिर मेरी सेना मेरी ओर से दिये गये कौरवों की सहायता के वचन से मुक्त हो जाएगी। ऐसी स्थिति में उस सेना का नेतृत्व करने के लिए ऐसा सेनापति चाहिए, जो उस सेना का समुचित उपयोग करके कौरवों से मेरे अपमान का बदला ले सके और उनको उचित दंड दे सके। ऐसा व्यक्ति कौन हो सकता है?
यह सोचते हुए कृष्ण के मस्तिष्क में सात्यकि की छवि आ गयी।
सात्यकि यादवों के एक प्रमुख सत्यक के पुत्र थे। उनका वास्तविक नाम युयुधान था। जब कृष्ण ने गोकुल से मथुरा आकर कंस का वध किया था, उसी समय से वे कृष्ण के घनिष्ट साथी और अनुयायी थे, हालांकि वे उम्र में कृष्ण से बहुत छोटे थे। उनका स्वप्न एक महान योद्धा बनने का था। एक बार जब अर्जुन 6 वर्ष का वनवास पाकर घूमते हुए द्वारिका आये थे, तो उन्होंने अर्जुन से धनुर्वेद का ज्ञान देने की प्रार्थना की थी। सभी प्रकार से सुपात्र जानकर अर्जुन ने उनको धनुर्वेद सिखाया था। हर प्रकार के बाणों का प्रहार करने में वे पूर्ण समर्थ थे और महारथी बन गये थे। वे अपनी योग्यता से यादवों की सेना के प्रधान सेनापतियों में से एक थे।
लेकिन जब दुर्योधन के आग्रह पर कृष्ण ने अपनी सेना कौरवों के पक्ष में लड़ने के लिए भेजने का वचन दे दिया, तो यह सात्यकि को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने स्पष्ट कहा कि अर्जुन मेरे गुरु हैं, मैं उनके विरुद्ध नहीं लड़ सकता। वैसे भी उनका पक्ष धर्म का है और कौरवों का पक्ष अधर्म का है, इसलिए मैं कौरवों के पक्ष में लड़ने के लिए यादव सेना के साथ नहीं जाऊंगा। कृष्ण को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं हुई और उन्होंने सात्यकि को किसी भी पक्ष में जाने की अनुमति दे दी। तभी सात्यकि ने इस युद्ध में पांडवों का साथ देने का निश्चय कर लिया और कृष्ण के साथ ही द्वारिका से उपप्लव्य नगर आ गये। वे उस समय वहीं थे।
सात्यकि की गुरुभक्ति से अर्जुन बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने सात्यकि को ‘अभय दान’ दिया। उन्होंने सात्यकि को वचन दिया कि यदि युद्ध क्षेत्र में कहीं भी तुम मेरी दृष्टि में रहते हुए युद्ध करोगे, तो मैं तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं होने दूँगा।
कृष्ण ने विचार किया कि अपने साथ ले जाने के लिए सात्यकि सबसे अच्छा साथी रहेगा। वह यादवों का सेनापति रहा है। यदि आवश्यकता हुई तो वह पुनः यादव सेना का सेनापति बनाया जा सकता है। किसी संकट के समय भी वह सहायक होगा और सबसे बड़ी बात यह है कि वह बहुत विश्वसनीय भी है। हस्तिनापुर में अनेक प्रकार की बातें होंगी, जिनमें बहुत सी गोपनीय भी हो सकती हैं। ऐसी बातों की गोपनीयता बनी रहना आवश्यक है। यह कार्य सात्यकि पूरी योग्यता से कर सकता है। वह महारथी है और अर्जुन जैसे महान धनुर्धर का शिष्य है, इसलिए आवश्यक होने पर युद्ध भी कर सकता है।
इसलिए कृष्ण ने निश्चय किया कि मैं अपने साथ केवल सात्यकि को ले जाऊंगा।
यह निश्चय कर लेने के बाद कृष्ण की चिन्ता कम हुई। देर रात्रि तक जागरण के कारण वे थके हुए तो थे ही, शीघ्र ही उनको नींद ने आ घेरा और वे गहन निद्रा में निमग्न हो गये।
(जारी…)
– डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
vijay ji thanks for write in simple language
स्वागत है, हुकम जी. मैं जहाँ तक संभव हो सरल शब्दों में ही लिखने की कोशिश करता हूँ. दूसरों को भी ऐसा ही लिखने को कहता हूँ.
विजय भाई , मुझे लगता है कृष्ण की भूमिका ऐसी रही है जैसे आज के ज़माने में भी सेना में commandar-in- chief सिर्फ युद्ध के पलैंन बनाते है और खुद लड़ते नहीं . वोह लड़ना तो जानते होते हैं लेकिन वोह युद्ध के दाव पेच बनाने में ही मसरूफ होते हैं . दिलचस्प होती जा रही है .
धन्यवाद, भाई साहब. आपका कहना सत्य है. श्रीकृष्ण पांडवों के अघोषित सर्वोच्च सेनापति थे.