उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (छब्बीसवीं कड़ी)

प्रातः ही कृष्ण अपने नियमित समय पर उठे। नित्य की क्रियाओं से निवृत्त होकर उन्होंने युधिष्ठिर के पास संदेश भेज दिया कि वे सभी भाइयों से मिलना चाहते हैं। यह सन्देश पाकर युधिष्ठिर को आश्चर्य हुआ। उनके द्वारा बुलावा भेजना अकारण नहीं हो सकता। कृष्ण का कोई भी कार्य निरुद्देश्य नहीं होता।

यह बात नहीं कि उन्होंने पहली बार सन्देश भेजा हो। बल्कि इसलिए कि यह समय युद्ध की तैयारियों का था और पहले तय हो चुकी योजना के अनुसार सभी तैयारियां चल रही थीं। क्या अब भी कोई तैयारी शेष रह गयी है? या श्रीकृष्ण सभी तैयारियां रोकना चाहते हैं? ऐसा तो हो नहीं सकता। उनके आदेश पर ही सभी प्रकार की तैयारियां प्रारम्भ की गयी हैं। अब वे क्यों रोकना चाहेंगे? क्या वे युद्ध की विभीषिका से आशंकाग्रस्त हो गये हैं? क्या वे हमें युद्ध का विचार छोड़कर इन्द्रप्रस्थ की आशा त्याग देने के लिए कहेंगे? यदि वे ऐसा आदेश देंगे, तो हमें मानना पड़ेगा। हमारा उनसे बड़ा हितैषी और कोई नहीं है। इन्हीं आशाओं-आशंकाओं के बीच सभी पांडव भाई कृष्ण के कक्ष में आ पहुंचे।

अभिवादनों के आदान-प्रदान के बाद सभी बैठ गये। युधिष्ठिर ने पूछा- ‘भगवन्, आज प्रातःकाल ही कैसे याद किया।’

कृष्ण ने जैसे रहस्योद्घाटन करते हुए उत्तर दिया- ‘मैं हस्तिनापुर जाना चाहता हूं।’

यह सुनते ही सभी पांडवों के ऊपर जैसे वज्रपात हुआ। वे अनेक आशंकाओं से घिर गये। भीम अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाये- ‘क्यों भगवन्? हस्तिनापुर में जाकर आप क्या करना चाहते हैं? क्या आप हमारा साथ छोड़ रहे हैं?’

‘नहीं महाबली! मैं आपका साथ कभी नहीं छोड़ूंगा। इसके लिए मैं वचनबद्ध हूं।’

‘फिर आप हस्तिनापुर क्यों जाना चाहते हैं?’ यह स्वर अर्जुन का था।

‘मैं शान्ति स्थापना के लिए प्रयास करना चाहता हूं।’

युधिष्ठिर को यह सुनकर आश्चर्य हुआ। शांति स्थापना के सभी प्रयत्न असफल हो चुके थे। अब कृष्ण क्या प्रयास करना चाहते हैं? उनका प्रश्न तैयार था- ‘आप जानते ही हैं कि दोनों पक्षों से दूतों का आदान-प्रदान हो चुका है और सन्धि की सारी सम्भावनायें समाप्त हो चुकी हैं। अब आपके जाने से क्या लाभ होगा?’

‘मैं जानता हूं कि दुर्योधन ने दूत के द्वारा असभ्यतापूर्ण संदेश भेजकर अपनी ओर से अन्तिम निर्णय सुना दिया है कि अब वे युद्ध ही चाहते हैं। फिर भी मैं एक बार प्रयत्न करके देखना चाहता हूं।’

‘क्या आपको विश्वास है कि आपके कहने से दुर्योधन युद्ध से विरत हो जाएगा और हमें इन्द्रप्रस्थ देने को तैयार हो जाएगा? जिस दुर्योधन ने पूज्य पितामह, भगवान वेदव्यास, गुरुवर द्रोणाचार्य, गुरुवर कृपाचार्य और महात्मा विदुर तक की सलाह को ठुकरा दिया, क्या वह आपकी बात को महत्व देगा?’

‘नहीं मुझे ऐसी कोई आशा नहीं है। फिर भी मैं प्रयास करना चाहता हूं।’

‘क्या हम इसका कारण जान सकते हैं?’

‘कारण यह है कि मैं इतिहास को यह कहने का अवसर नहीं देना चाहता कि कृष्ण ने समर्थ होते हुए भी युद्ध रोकने का प्रयास नहीं किया। मैं स्वयं को इस कलंक से बचाना चाहता हूं।’

कृष्ण की यह बात सुनकर सभी पांडव विचारों में डूब गये। कृष्ण की बात में तथ्य था। इतिहासकार तो महान से महान् व्यक्तियों के चरित्र में भी दोष निकाल लेते हैं। यहां तक कि भगवान श्रीराम के परम पावन चरित्र की भी कई लोग क्षुद्र बातों के लिए निन्दा करते हैं। इसलिए कृष्ण की आशंकायें सत्य हैं। लेकिन क्या यह कृष्ण के हस्तिनापुर जाने का पर्याप्त कारण हो सकता है?

अन्त में युधिष्ठिर ने सन्नाटा तोड़ा- ‘भगवन्, इतिहासकार तो सभी के बारे में तरह-तरह की बातें करते ही रहते हैं। हम उनकी चिन्ता क्यों करें? हम उनमें से किस-किस का मुंह बन्द कर सकते हैं? यह सम्भव भी नहीं है।’

‘आपका कहना सत्य है, धर्मराज। लेकिन केवल यही एक कारण नहीं है। वे मेरे ऊपर यह आरोप भी लगा सकते हैं कि कृष्ण ने अपने ही स्वार्थ के लिए चचेरे भाइयों को आपस में लड़वाकर मरवा दिया।’

‘परन्तु यह सत्य नहीं है, कृष्ण। हम जानते हैं कि आप युद्ध नहीं चाहते, आप केवल हमें हमारा अधिकार दिलाना चाहते हैं। युद्ध तो दुर्योधन हमारे ऊपर थोप रहा है।’

‘यह तो आप कह रहे हैं, सम्राट। लेकिन इतिहासकार इसको नहीं समझेंगे। वे तो यह देखेंगे कि कृष्ण ने अपनी सेना एक पक्ष को दे दी, स्वयं दूसरे पक्ष में रहे और दोनों पक्षों को लड़ते-मरते हुए देखते रहे। कृष्ण ने स्वयं युद्ध नहीं किया। इस तरह उनके पास मेरी निन्दा करने का पर्याप्त आधार होगा।’

सभी पांडव उनकी बात को ध्यान से सुन रहे थे। कृष्ण की बातों में बल था। इतिहासकार बहुत निर्मम होते हैं। तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत करना उनकी प्रवृत्ति होती है। यदि परछिद्रान्वेषी इतिहासकार उनकी निन्दा का कारण खोज लें, बना लें, कल्पित कर लें, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

‘ठीक है, भगवन्, यदि आप हस्तिनापुर जाकर प्रयास करना चाहते हैं, तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन क्या आपको सफलता की आशा है?’

‘सफलता की आशा बहुत क्षीण है। दुर्योधन के दूत ने आपकी राजसभा में जो कथनीय-अकथनीय बातें कही हैं, उन्होंने सभी आशाएं समाप्त कर दी हैं। दुर्योधन युद्ध के लिए बहुत लालायित है। इसलिए मुझे सफलता की कोई आशा नहीं है। फिर भी मैं प्रयास करना चाहता हूं।’

‘अगर आपको इस प्रयास में असफलता मिली, तो क्या आपकी निन्दा नहीं होगी?’

‘अगर इस असफलता के कारण मेरी निन्दा होती है, तो मुझे स्वीकार होगी। कम से कम कोई यह तो नहीं कहेगा कि कृष्ण ने प्रयास नहीं किया। असफलता की आशंका के कारण मैं अपने प्रयत्नों को नहीं छोड़ सकता।’

सभी पांडव उनकी बात को सुनते हुए सहमति में सिर हिला रहे थे। इसके बाद कोई प्रश्न शेष नहीं था। कृष्ण ने हस्तिनापुर जाने का निश्चय कर लिया था और वे जायेंगे ही।

(जारी…)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

4 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (छब्बीसवीं कड़ी)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई साहिब , मैंने उस दिन लिखा था कि मौजूदा समय में commandar-in-chief युद्ध के प्लैन बनाता है लेकिन यहाँ तो युद्ध दो भाईओं के बीच हो रहा है और क्रिशन नजदीकी रिश्तेदार है . उस को पता तो है कि कौन गलत है और कौन सही लेकिन एक अछे इंसान के नाते अपना फ़र्ज़ निभाना जरुरी समझा . आप की बात भी सही है कि क्रिशन का यह सोचना कि इथास्कार उस को ब्लेम दे सकते हैं . जब जंग होती है तो यह मामूली बात तो होती नहीं , इस में खून की नदीआं बह जाती हैं . इस होने वाली जंग के परिणाम को क्रिशान से ज़िआदा कौन जान सकता था .

    • विजय कुमार सिंघल

      आपने सही समझा है भाई साहब. आगे की कहानी और भी रोचक है. कृष्ण किस प्रकार कौरवो को हडकाते हैं, भड़काते हैं, धमकाते हैं और पुचकारते है, यह देखना रोचक होगा.

  • शान्ति पुरोहित

    महाभारत के युद्ध का बहुत ही सरल शब्दों में वर्णन किया है बहुत अच्छा लगा

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, लेकिन मैंने तो युद्ध का वर्णन किया ही नहीं है. मैं तो शान्ति के प्रयत्नों की बात कर रहा हूँ.

Comments are closed.