मुझे दीजिये ‘भारत रत्न’
भारत-रत्न देने का मुद्दा देशव्यापी हुआ है, यकीन मानिए मुझे हर भारतीय में एक भारत-रत्न की-सी आभा दिखाई देती है। मम्मी-पापा की अंगुली थाम कान्व्हेण्ट में जानेवाला शिशु हो या गाँव के आँगन की धूल में लोट लगानेवाला नौनिहाल-सब में मुझे भारत-रत्न की अलौकिक छटा दिखाई देती है। यहाँ तक कि उस दिन मुझे कुछ विदेशी पर्यटकों में भी भारत-रत्न के लक्षण दिखाई दे रहे थे। स्वयं को दर्पण में निहारा तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई हमशक्ल भारत-रत्न खड़ा है। महाकवि होते तो लिख देते-भारत-रतनमय सब जग जानी।
ऐसा लगता है आनेवाले दशकों में हर घर-आँगन में, एक न एक भारत-रत्न अवश्य मिलेगा। तब सोचिए कितना सुंदर और नयनाभिराम दृश्य होगा। एक भारत-रत्न चौराहे के पान ठेले पर खड़ा पान चबा रहा है। उसे घेरे अन्य भारत-रत्न खड़े हैं। अब बेेचारे को पीक थूकने की इच्छा हुई। पर समस्या! कहाँ थूके, किधर थूके? मुँह की पिचकारी बना थूकने के लिए जिधर थूथन घूमाता है, उधर ही एक भारत-रत्न खड़ा है! अब वह दूसरा भारत-रत्न कहता है-‘भाई साहब, ज़रा उस तरफ थूकिये। दिखता नहीं यहाँ एक भारत-रत्न खड़ा है। क्या आपको इतनी भी तमीज़ नहीं कि एक भारत-रत्न को दूसरे भारत-रत्न पर नहीं थूकना चाहिए। चलिए अपनी थूथन उधर कीजिए।’
और फिर जैसे ही वह अपनी थूथन दूसरी ओर घुमाता, वही समझाइश, ‘भाई साहब……।’ हर ओर से, हर दिशा से यही सुनाई देता- ‘भाई साहब, इधर नहीं, उधर।’ अब बताइये वह भारत-रत्न क्या करेगा? सोचिए, सोचिए।
मेरे हिसाब से उसके पास अब दो ही विकल्प बचे। पहला, वह अपनी पीक गटक जाए। आगे ब बैठा।
उस समय मेरी खुशी का ठिकाना न रहा, जब प्रथम आने पर विश्वविद्यालय ने मुझे स्वर्ण पदक देने की घोषणा की। मैं बड़ा प्रसन्न और प्रफुल्लित था कि अब सोना मेरे हाथ लगा। पर मेरे एक सुनार मित्र ने उसे कसौटी पर रगड़कर यह बताया कि पदक सोने का नहीं। उस पर सिर्फ सोने का पानी चढ़ा है। और मेरी आशाओं पर फिर पानी फिर गया। सरकार भी कैसे मज़ाक करती है-पढ़े-लिखे लोगों के साथ। उसके बाद विवाह के समय जब पत्नी अंगूठी पहना रही थी तो मैं खुश नहीं हुआ। सोचने लगा, इस पर भी सोने का पानी चढ़ा होगा। लोग मेरे नाम के साथ ‘सुनेरी’ देखकर भ्रमित होते हैं कि सोने के साथ मेरा करीब का रिश्ता है। और हाँ, हीरा-मोती के नाम मैंने अब तक या तो बैल देखे हैं या कुत्ते।
किन्तु अब तिरालीस साल बाद उस गीत का रहस्य उजागर हो रहा है। गुलशन बावरा और मनोज कुमार तिरालीस साल पहले की इस गीत का भविष्य देख चुके थे। कलाकार भविष्य-दृष्टा जो होता है। देखिए न, कैसे अचानक रबी की फसल के साथ भारत-रत्नों की फसल तैयार की जा रही है। वसंत के आगमन के साथ ही राजनीति की भूमि पर, सिफारिशों की खाद डालकर, भारत-रत्न रूपी कुकुरमुत्ते खिलाने के प्रयास किये जा रहे हैं।
इसमें कोेई संदेह नहीं कि यह शस्य-श्यामला भूमि, रत्न-प्रसूता भी रही है। अब यह बात और है कि आजादी के साठ साल बाद भी यहाँ का कोहिनूर, लंदन के अजायबघर में कैद है। इससे पहले भी गणतंत्र-दिवस जब वसंत पर सवार होकर आता था तो, भारतमाता को रत्न दे जाता था। कभी-कभी ऐसा हुआ कि वसंत भी आया, पर इस देश के नागरिक ही नालायक निकले। तब हमें भारत-रत्न की खोज में विदेश जाना पड़ा। हमारा पुरुषार्थ देखिये, एक बार तो हम दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग की हीरे की खदान से, भारत-रत्न ढूँढ़ लाए। और जब सरकार को वर्तमान में कोइ्र्र भारत-रत्न न मिला तो, गड़े मूर्दे तक उखाड़ने से नहीं चूकी। उनकी आत्माओं की कान में फूंका गया कि ”जागो! अब हम भी जाग गये हैं।
चाटुकारिता और चापलूसी की नकली आँँखों के कारण और पद के मद के कारण ये आँखें चुंधिया गई थी। हम तुम्हें अनदेखा कर गये थे नेताजी। उस चक्कर में हम तुम्हारे नातियों और भतीजों को भारत-रत्न बना गये। अब नानाओं और चाचाओं तुम्हारी बारी है। लो ये भारत-रत्न लो और हमें माफ करो।“ पैदायशी भारत-रत्नों को, उनके स्वर्गारोहण के बाद बताया गया कि तुम भारत-रत्न हो। बीच में कुछ ऐसे भी वर्ष आये, जब दूषित पर्यावरण और मौसम की मार के कारण, भारत-रत्न का काल पड़ गया।
लेकिन, इस बार तो कमाल हो गया साहब! देश के अनेेक भागों में सूखा पड़ने के बावजूद भारत-रत्नों की बो नहीं देनी अपनी राय। मुझे इनमें से कोई पसंद नहीं। क्या ये कोई स्वयंवर हो रहा है, जो मैं अपने लिए दुल्हा पसंद करूँ? मैं भी एक भारतीय हूँ। नख से शिख तक, अंतर्मन से बहिर्मन तक, आाचार से विचार तक और भावना से कर्म तक। मैने आज तक रिश्वत नहीं खायी। न मेरे कारण आज तक कोई सांप्रदायिक या जातीय हिंसा फैली। मै किसी नाजायज माँग के लिए भी आज तक आमरण अनशन पर नहीं बैठा हूँ, और न ही मैं कालाबाजारी करता हूँ। मै एक ईमानदार भारतीय हूँ। मुझे दीजिए न-भारत-रत्न। पर मैं जानता हूँ, मेरा समर्थन कोई नहीं करेगा। मैं एक विशुद्ध भारतीय हूँ-सौ करोड़ में से एक। मुझे दीजिए-भारत-रत्न। मै भी दौड़ में शामिल हूँ।
पड़ कर ऐसा लगता है , सभी भारत रतन ही हैं लेकिन इस व्यंग्य में मुझे अछे और इमानदार लोगों की जगह दिखाई नहीं दी वर्ना अच्छा लेख है .
फिर एक करारा व्यंग्य. लेकिन बीच में कुछ छूट गया लगता है.