उपन्यास : शान्तिदूत (अट्ठाईसवीं कड़ी)
पांडवों के जाते ही कृष्ण ने सात्यकि को बुलवाया। सन्देश मिलते ही वह उपस्थित हो गया। कृष्ण ने उनसे कहा- ‘सात्यकि, मैं संधि प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर जा रहा हूं। तुम्हें मेरे साथ चलना है।’
यह सुनकर जो प्रश्न पांडवों के मस्तिष्क में उपजे थे, वे ही सात्यकि के मस्तिष्क में आ गये। बोले- ‘सन्धि प्रस्ताव? लेकिन दोनों पक्षों में दूतों का आदान-प्रदान तो हो चुका है। आप क्या कर पायेंगे? क्या दुर्योधन आपके कहने से युद्ध की इच्छा छोड़ देगा और पांडवों को इन्द्रप्रस्थ देना स्वीकार कर लेगा?’
कृष्ण उन सब बातों को दोहराना नहीं चाहते थे, जो उनके और पांडवों के बीच थोड़े समय पूर्व ही होकर चुकी हैं। इसलिए उन्होंने केवल इतना कहा- ‘इन सब बातों पर विचार किया जा चुका है। मुझे सफलता की आशा बहुत कम है, लेकिन मैं केवल एक और प्रयास करना चाहता हूं। पूरी बातें मैं तुम्हें रास्ते में बताऊंगा।’ कृष्ण के इस कथन से सात्यकि की जिज्ञासाओं का समाधान हो गया और वह यात्रा की तैयारी करने चला गया।
कृष्ण को यात्रा की कोई विशेष तैयारी करने की आवश्यकता नहीं थी। सन्देशवाहक पूर्व सूचना लेकर हस्तिनापुर जा ही चुका था। कृष्ण को ले जाने वाला रथ भी तैयार हो गया होगा। लेकिन अभी एक व्यक्ति शेष था, जिससे मिले बिना कृष्ण कोई सन्धि प्रस्ताव हस्तिनापुर ले जाने की सोच भी नहीं सकते थे। वह थी उनकी मुँहबोली बहिन, द्रुपद की पुत्री और सभी पांडवों की पत्नी कृष्णा, जो द्रोपदी और पांचाली के नाम से अधिक प्रसिद्ध थी। कौरवों ने अपनी मूर्खता से उस सती नारी को अपनी राजसभा में अपमानित किया था और निर्वस्त्र करने की चेष्टा की थी।
इस युद्ध का आयोजन वास्तव में कौरवों को उनकी इसी उद्दंडता का दंड देने और द्रोपदी के घोर अपमान का बदला लेने के लिए ही किया जा रहा था। द्रोपदी ने अपने बाल खींचने वाले दुःशासन के रक्त से बालों को धोने की प्रतिज्ञा कर रखी थी और जब तक यह प्रतिज्ञा पूरी न हो तब तक बाल खोले ही रखने का निश्चय कर रखा था। उस प्रतिज्ञा को पूरा करने का दायित्व सभी पांडवों का था। इसी दायित्व को पूरा करने के लिए यह युद्ध होना था। इसलिए यदि उस युद्ध को टालने का कोई प्रयास किया जाता तो उसमें द्रोपदी की सहमति आवश्यक होती। इन बातों को ध्यान में रखकर ही श्री कृष्ण द्रोपदी से मिलना चाहते थे। उससे मिले बिना चला जाना उसके प्रति अन्याय होता। अतः वे द्रोपदी के कक्ष में जाने के लिए निकले।
प्रतिहारी से उन्होंने अपने आने की सूचना द्रोपदी को देने के लिए कहा। कृष्ण के आने की सूचना मिलते ही द्रोपदी स्वयं दरवाजे तक आ गयी और कृष्ण को सादर लिवा ले गयी। उसकी खुशी छिपाये नहीं छिप रही थी। ऐसे अवसर बहुत कम आते थे जब उनके मुंहबोले भाई केवल अपनी मुँहबोली बहिन से ही मिलने आते हों। अधिकतर तो वे सभी पांडवों से मिला करते थे और उनके साथ ही कभी-कभी द्रोपदी से भी उनकी बातें हो जाती थीं। यद्यपि वह उनके बीच में अधिक नहीं बोलती थी।
‘भैया, आज प्रातः ही अपनी बहिन को कैसे याद कर लिया? क्या कोई नया समाचार आया है?’ द्रोपदी के स्वर की प्रसन्नता छिपाये नहीं छिप रही थी।
‘हां, कृष्णा। एक समाचार है तुम्हारे लिए।’ रहस्यमयी मुस्कान के साथ कृष्ण ने कहा।
‘क्या समाचार है, बताइए।’
‘मैं सन्धि का प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर जा रहा हूं।’
यह सुनकर द्रोपदी की प्रसन्नता वायु में विलीन हो गयी। वह घबराकर बोली- ‘सन्धि प्रस्ताव? लेकिन सारे प्रस्ताव तो कौरवों ने अस्वीकार कर दिये हैं। अब आप क्या नया प्रस्ताव ले जा रहे हैं?’
‘मैं कोई नया प्रस्ताव नहीं ले जा रहा हूं। मैं केवल शान्ति के लिए प्रयास करना चाहता हूं। मैं स्वयं कौरवों को समझाना चाहता हूं कि वे युद्ध की हठ छोड़ दें और पांडवों को इन्द्रप्रस्थ लौटा दें।’
‘क्या दुर्योधन आपके कहने से यह प्रस्ताव मान लेगा?’
‘मुझे इसकी आशा बहुत कम लगभग शून्य है। लेकिन प्रयत्न करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं।’
‘अगर दुर्योधन ने आपका प्रस्ताव मान लिया, तो मेरी इस प्रतिज्ञा का क्या होगा? क्या मेरे ये केश जीवनभर खुले ही रह जायेंगे?’ द्रोपदी के स्वर में चिन्ता ही नहीं कातरता थी।
‘कृष्णा, तुम्हारे इन केशों की चिन्ता मुझे तुमसे अधिक है। तुम्हारे केश खुले नहीं रहेंगे, इसका वचन देता हूं। लेकिन मैं एक प्रयत्न करके देखना चाहता हूं ताकि कोई यह न कहे कि कृष्ण ने समर्थ होते हुए भी युद्ध रोकने का प्रयास नहीं किया। युद्ध में जो विनाश होगा, उसका दोष अकेले मुझ पर न आये, मैं यही चाहता हूं।’
‘भैया, आप कुछ भी करिए। लेकिन मेरे इन खुले हुए केशों को याद रखना।’ दुःख के आवेश में द्रोपदी के मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। लगता था कि वह अभी ही रो पड़ेगी।
‘कृष्णा, मेरे ऊपर विश्वास रखो। मैं अच्छी तरह जानता हूं कि दुर्योधन कभी मेरे प्रस्ताव को नहीं मानेगा। तुम्हारी प्रतिज्ञा अवश्य पूरी होगी।’
इन शब्दों ने द्रोपदी को बहुत सांत्वना पहुंचायी। फिर उसे अपनी सासु मां की याद आ गयी। इसलिए बोली- ‘ठीक है, भैया। आप वहां माताश्री से मिलेंगे तो उनके चरणों में मेरा प्रणाम निवेदन करना। इसी प्रकार चाचा विदुर और चाची से भी मेरा प्रणाम निवेदन करें।’ द्रोपदी ने भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि के प्रति अपना प्रणाम निवेदन करने के लिए नहीं कहा। उसकी आवश्यकता भी नहीं थी।
‘अवश्य। कृष्णा, तुम अपना ध्यान रखना और मेरे आने की प्रतीक्षा करना।’ यह कहकर कृष्ण ने द्रोपदी से विदा ली और बाहर आ गये।
कुछ समय पश्चात् भोजन करने के बाद ही वे सात्यकि के साथ रथ में बैठकर हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान कर गये।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , जैसे कि आप के नावल का नाम ही शान्ति दूत है , कृषण ने शान्ति के लिए अपना पूरा जोर लगाया किओंकि वे जानते थे कि इतहास में ऐसी बातें ना लिखी जाएं जिस से यह जाहिर हो कि कृषण ने पांडवों का पक्ष ले कर धोका दिया . हालांकि उन को मालूम था कि दुर्योधन कभी मानेगा ही नहीं , जो इंसान औरत की बेइजती वोह भी अपनी ही भरजाई की करने से बाझ नहीं आया वोह शान्ति के लिए कैसे हाँ करेगा ? फिर भी उन्होंने अपना फ़र्ज़ जरूरी समझा . इन बातों से एक और बात निकलती है कि गांधी जी ने भी वही रास्ता चुना , शान्ति का और इस में वे कामयाब हुए . हालांकि गर्म दिल जवानों ने भी भारत की आजादी के लिए कुरबानिया दीं लेकिन शान्ति के हथिआर से भारत के सभी लोग जाग उठे , सारा भारत अंग्रेजों के खिलाफ हो गिया और आखिर में अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा . गांधी जी नौनं वाएलैंस में विशवास रखते थे. इस का यह मतलब भी नहीं नौनं वाएलैंस हमेशा ही चलता रहेगा . कोई वक्त आ जाता है जब लोग कहने लगते हैं एनफ इज एनफ और सभी लोग एक मुठ हो जाते हैं और नतीजा होता है महांभारत.
धन्यवाद, भाई साहब। कृष्ण के बारे में आपकी बात सत्य है। गांधी ने बहुत कुछ किया था, लेकिन उनकी नीतियाँ ग़लत थीं। उनसे देश को आगे चलकर बहुत हानि हुई। मैंने इस बारे में बहुत विस्तार से लिखा है। समय आने पर यहाँ प्रस्तुत करूँगा।