उपन्यास : शान्तिदूत (उन्तीसवीं कड़ी)
जैसे ही रथ उपप्लव्य नगर की सीमा से बाहर निकला, वैसे ही सात्यकि ने अपनी जिज्ञासा, जो उसने बहुत समय से दबा रखी थी, प्रकट कर दी- ‘भैया, अब मुझे पूरी बात बताओ। आप हस्तिनापुर क्यों जा रहे हैं?’
‘मैं बता तो चुका हूँ कि शान्ति प्रस्ताव लेकर जा रहा हूँ, ताकि युद्ध रुक सके।’
‘लेकिन कौरवों ने पहले ही हमारा प्रस्ताव पूरी तरह ठुकरा दिया है। क्या आप कोई नया प्रस्ताव रखने वाले हैं?’
‘नहीं, कोई नया प्रस्ताव तो अभी नहीं है मेरे पास। मैं केवल उनको समझाने के लिए जा रहा हूँ।’
‘क्या आपके समझाने से वे समझ जायेंगे? जिन्होंने भगवान वेदव्यास की नहीं सुनी, पितामह भीष्म का परामर्श नहीं माना, वे आपकी बात क्या सुनेंगे?’
‘मुझे ज्ञात है कि वे मेरी बात को नहीं मानेंगे, फिर भी मैं प्रयत्न करना चाहता हूँ।’
‘क्यों?’
‘क्योंकि मैं नहीं चाहता कि इतिहास यह कहे कि कृष्ण ने समर्थ होते हुए भी युद्ध रोकने का कोई प्रयास नहीं किया।’
‘हूँ। यह बात तो सही है, भैया। इतिहासकार आपको दोषी ठहरा सकते हैं।’
‘इतना ही नहीं, वे मेरे ऊपर यह दोष भी लगा सकते हैं कि मैंने ही कौरवों और पांडवों को परस्पर लड़वाकर मरवा दिया।’
‘आपकी यह आशंका भी सच है, भैया। इतिहासकार तो श्रेष्ठ पावन चरित्रों को भी कलंकित करते हैं।’
‘हाँ, इसीलिए मैं एक बार प्रयत्न करके देख लेना चाहता हूँ।’
‘भैया, क्या आपको विश्वास है कि आपको इसमें सफलता मिल जाएगी?’ सात्यकि के स्वर में निराशा स्पष्ट थी।
‘नहीं, मुझे सफलता की कोई आशा नहीं है। दुर्योधन की अभी तक की प्रवृत्तियों को देखते हुए उसे युद्ध से विरत करना लगभग असम्भव है। फिर भी मैं असफलता के लिए मानसिक रूप से तैयार हूँ और इसकी आलोचना सहने में भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है।’
‘भैया, मुझे एक भय है। क्या आपका अकेले कौरवों के क्षेत्र में जाना उचित है? क्या आपको अपनी सुरक्षा की कोई चिन्ता नहीं है? आपको पता ही है कि दुर्योधन कितना दुष्ट है। वह आपको शारीरिक हानि पहुँचाने और बन्दी बनाने की चेष्टा कर सकता है।’
‘मुझे अपनी सुरक्षा की चिन्ता है, इसीलिए तो तुम्हें साथ लाया हूँ।’
‘मैं… मैं इसमें क्या सहायता कर सकता हूँ?’
‘तुम बहुत कुछ कर सकते हो। तुम यादवों की सेना के सेनापति हो।’
‘लेकिन वह तो आपने दुर्योधन के मांगने पर कौरवों के पक्ष में लड़ने के लिए भेज दी है। मैं उसके साथ नहीं हूँ। मैं तो पांडवों के पक्ष में लड़ूंगा।’
‘यह मुझे पता है। मैं राजसभा में अकेले ही जाऊंगा। वैसे तो मैं अपनी रक्षा करने में स्वयं पूर्ण समर्थ हूँ, लेकिन यदि दैवयोग से मैं मारा जाऊँ या पकड़ा भी जाऊँ, तो हमारी सेना दुर्योधन के पक्ष में लड़ने के लिए बाध्य नहीं होगी। तब वह सहायता के वचन से पूर्णतः मुक्त होगी और उसके सेनापति तुम रहोगे। तुम अपनी सेना का कोई भी उपयोग करने के लिए स्वतंत्र रहोगे।’
‘हूँ। मैं आपकी बात कुछ-कुछ समझ रहा हूँ।’
‘जिस समय मैं राजसभा में रहूँगा, तुम उसके मुख्य दरवाजे के बाहर ही रहना और भीतर चलने वाली घटनाओं पर आँख-कान लगाये रखना। यदि कोई खतरा दिखाई दे, तो मुझे संकेत कर देना।’
‘अवश्य, भैया। मैं समझ गया मुझे क्या करना है।’
‘तुम बुद्धिमान हो, सात्यकि। तुमने यह भी समझ लिया होगा कि मेरे बन्दी बनाये जाने पर या मारे जाने पर तुम्हें क्या करना है?’
‘हाँ, भैया। मैंने अपना कर्तव्य भली भाँति समझ लिया है। आप निश्चिन्त रहिए और निश्चिन्त होकर ही कौरवों की राजसभा में जाना। कोई अनपेक्षित घटना होने पर मैं कौरवों को उचित पाठ पढ़ा दूंगा।’ यह कहते हुए सात्यकि की आँखों में चमक आ गयी, जैसे कृष्ण ने इतना महत्वपूर्ण कार्य उसके कंधों पर डालकर उसे सम्मान दिया हो।
कृष्ण ने संतोष की साँस ली। सात्यकि को साथ लाने का उनका निर्णय सही सिद्ध हुआ। सात्यकि योग्य था, वीर था और एक प्रकार से कृष्ण की पूजा करता था। वह अवश्य अपना कर्तव्य समर्पण भाव से करेगा। अब कृष्ण आश्वस्त होकर कौरवों की राजसभा में प्रवेश कर सकते थे।
इसके बाद कृष्ण और सात्यकि परस्पर हल्की-फुल्की चर्चा करते रहे। उनका रथ हस्तिनापुर की ओर बढ़ा जा रहा था और कुछ समय बाद ही हस्तिनापुर की सीमा में प्रवेश करने वाला था। कृष्ण मन ही मन में उन बातों पर विचार कर रहे थे, जो उनको कौरवों की राजसभा में जाकर कहनी थीं। इन बातों को उन्होंने कई बार दोहराया होगा।
हस्तिनापुर अब निकट ही था। शीघ्र ही वे हस्तिनापुर के मुख्य द्वार पर पहुँच जायेंगे, जहाँ उनका औपचारिक स्वागत किया जाएगा, क्योंकि उनके आने की पूर्व सूचना भेजी जा चुकी थी।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , पड़ कर आनंद आ रहा है . अब दुर्योधन से किया बातें होगी इस का इंतज़ार है .
धन्यवाद, भाई साहब. अगली कड़ी परसों सामने आएगी. अभी लिखी ही नहीं है. आज ही आगरा से लौटा हूँ. जन्माष्टमी की धूम थी वहां. आपको शुभकामनाएं.
विजय भाई आप को भी कृष्ण जनम अष्टमी की शुभ कामनाएं .
आभार, भाई साहब.