उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (तीसवीं कड़ी)

जब पांडवों का दूत यह समाचार लेकर हस्तिनापुर पहुँचा कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण पांडवों की ओर से समझौते के लिए प्रयास करने आ रहे हैं, तो कौरवों में कई प्रकार की प्रतिक्रिया हुई। राजसभा में विदुर ने महाराज धृतराष्ट्र को सम्बोधित करते हुए जब यह समाचार दिया, तो मन ही मन में धृतराष्ट्र कांप गये। सोचने लगे कि पता नहीं यह ग्वाला अब यहां क्या करने आ रहा है। इससे पहले जब भी कृष्ण हस्तिनापुर में आये थे, तो कौरवों को उनके कारण हानि ही उठानी पड़ी थी।

पिछली बार वे राज्य के विभाजन के समय आये थे और उन्होंने धृतराष्ट्र को अपनी बातों के जाल में फंसाकर पांडवों के लिए राजकोष का एक भाग देने को बाध्य कर दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने यह अनुमति भी प्राप्त कर ली थी कि यदि कोई नागरिक हस्तिनापुर से पांडवों के राज्य में जाना चाहे, तो उसे अपनी चल सम्पत्ति के साथ जाने दिया जाये अर्थात् उसे रोका न जाये। इसका परिणाम यह हुआ था कि बहुत से नागरिक, जो दुर्योधन और उसके भाइयों की उद्दंडता से त्रस्त थे, हस्तिनापुर छोड़कर इन्द्रप्रस्थ चले गये थे।

ये सब बातें धृतराष्ट्र भूले नहीं थे। फिर भी प्रकट रूप में वे बोले- ‘यह तो अच्छी बात है, विदुर। वासुदेव के स्वागत का प्रबंध कीजिए। उनको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिए।’

पितामह भीष्म ने भी यही कहा- ‘भले ही कृष्ण पांडवों की ओर हैं, लेकिन वे हम सबके पूज्य हैं। हस्तिनापुर में उनका आना हमारे लिए सौभाग्य की बात है। अवश्य ही वे कोई ऐसा प्रस्ताव लेकर आ रहे होंगे, जो हमें स्वीकार्य होगा और युद्ध के कारण होने वाला विनाश टल जाएगा। महाराज, मैं स्वयं उनका स्वागत करने नगरद्वार पर जाऊंगा।’

धृतराष्ट्र ने तत्काल इसकी स्वीकृति दे दी। लेकिन युवराज दुर्योधन इससे भड़क गये। बोले- ‘महाराज, कृष्ण भले ही सम्पूर्ण संसार में क्यों न पूजे जाते हों, लेकिन वे इस समय केवल पांडवों के दूत के रूप में आ रहे हैं। उनको अधिक महत्व देना उचित नहीं। उनको दूत की तरह ही राजसभा में बुलाना चाहिए और वे पांडवों का जो संदेश लाये हों, उसे सुन लेना चाहिए। इससे अधिक कुछ करने की कोई आवश्यकता मैं नहीं समझता।’

भीष्म ने इस पर दुर्योधन को डांटा- ‘युवराज, यह तुम्हारा अहंकार बोल रहा है। वासुदेव कृष्ण पांडवों के दूत के रूप में नहीं आ रहे हैं। उनका दूत तो पहले ही आ चुका है और निराश लौटकर जा चुका है। कृष्ण तो एक मध्यस्थ के रूप में शान्ति का प्रयास करने आ रहे हैं। यह तुम्हारे लिए अच्छा अवसर है। कृष्ण जो प्रस्ताव रखें उसको मान लोगे, तो हस्तिनापुर युद्ध के कारण होने वाले महाविनाश से बच जाएगा।’

पितामह भीष्म की यह नेक सलाह सुनकर दुर्योधन और अधिक भड़क गये। बोले- ‘मैं कायर नहीं हूँ, मैं युद्ध से नहीं डरता। जिसको युद्ध से डर लगता हो, वह कृष्ण का प्रस्ताव मान ले। मैं कभी नहीं मानूंगा।’

दुर्योधन का यह हठ धृतराष्ट्र को भी अनुचित लगा। उन्होंने दुर्योधन को समझाते हुए कहा- ‘वत्स, कृष्ण आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ योद्धा हैं। भले ही वे इस युद्ध में शस्त्र नहीं उठायेंगे, फिर भी वे पांडवों को अपने परामर्श द्वारा जो सहायता देंगे, उतनी सहायता कोई योद्धा तो क्या बड़ी से बड़ी सेना भी नहीं दे सकती। अगर तुम उनका स्वागत करोगे, तो सम्भव है कि तुम्हारे प्रति भी उनका प्रेम जाग्रत हो जाए। वैसे भी वे यादवों के नायक हैं और हमारे सम्बंधी भी हैं। इसलिए उनका उचित स्वागत करना हमारा कर्तव्य है। तुम स्वयं उनका स्वागत करने नगरद्वार पर जाओ। यह मेरा आदेश है।’

महाराज का आदेश पाकर न चाहते हुए भी दुर्योधन नगरद्वार पर कृष्ण का स्वागत करने को तैयार हो गये। उनके साथ पितामह भीष्म तो थे ही, महाराज के प्रतिनिधि के रूप में महामंत्री विदुर और दुर्योधन के कुछ भाई भी थे। इतना ही नहीं कर्ण और शकुनि भी छाया की तरह उनके पीछे लग गये। शकुनि स्वयं ही इस स्वागत करने वाले दल में इसलिए शामिल हो गये थे कि उनको डर था कि कृष्ण कहीं अपनी मोहक बातों और मुस्कान का जादू चलाकर दुर्योधन को ‘पथभ्रष्ट’ न कर दें। अगर युवराज दुर्योधन युद्ध से विरत हो गये, तो कुरुवंश का सर्वनाश कराने का उनका स्वप्न अधूरा रह जाएगा, जिसको पूर्ण करने के लिए वे दीर्घकाल से वहां अपमानजनक परिस्थितियों में रह रहे थे।

कृष्ण के आगमन के संभावित समय से पूर्व ही वे सब नगर द्वार पर पहुँच गये। जैसे ही कृष्ण का रथ दिखाई देने लगा, वैसे ही वे स्वागत के लिए तैयार हो गये। कृष्ण ने दूर से ही पितामह भीष्म को पहचान लिया, इसलिए वे नगरद्वार से थोड़ा पहले ही रथ को रुकवाकर रथ से नीचे उतरे और पितामह की ओर बढ़े। सात्यकि उनके पीछे थे।

भीष्म ने कृष्ण को अपनी ओर आते देखा, तो ‘स्वागत है वासुदेव !’ कहते हुए हाथ जोड़कर उनकी ओर बढ़े। निकट पहुँचते ही कृष्ण उनके चरण स्पर्श करने के लिए झुके, लेकिन भीष्म ने उनको बीच में ही रोककर अपने गले से लगा लिया और बोले- ‘वासुदेव, आपके आगमन से आज हस्तिनापुर धन्य हो गया।’

‘मैं भी आपके दर्शन करना चाहता था, पितामह!’ अपने सहज स्मित के साथ कृष्ण ने कहा।

‘पांडु के सभी पुत्र कुशल तो हैं?’

‘सभी कुशल हैं, पितामह! सभी ने आपको प्रणाम कहा है!’

‘मेरा आशीर्वाद है सभी को!’ कहकर भीष्म उनकी यादों में डूब गये।

‘स्वागत है, कृष्ण!’ यह युवराज दुर्योधन का स्वर था। इसे सुनकर कृष्ण दुर्योधन की ओर मुड़े- ‘कैसे हैं आप, युवराज?’

‘कुशल हूँ, वासुदेव!’

‘मेरे आगमन का उद्देश्य आपको पता ही होगा, युवराज?’ कृष्ण ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहा।

‘कुछ अनुमान है मुझे। आपका आगमन कभी अकारण नहीं होता। इस विषय पर कल राजसभा में चर्चा होगी।’ दुर्योधन ने इस चर्चा को टालना चाहा।

‘बहुत उचित कहा, युवराज ! कल मैं समय पर राजसभा में उपस्थित हो जाऊंगा।’

इसके बाद कृष्ण का अन्य उपस्थित व्यक्तियों के साथ भी अभिवादन का आदान-प्रदान हुआ।

‘आपके निवास का प्रबंध अतिथिशाला में किया गया है, गोविन्द!’ महामंत्री विदुर ने सूचित किया।

‘वासुदेव, आज सायंकाल का भोजन आप हमारे साथ कीजिए। आज हमने आपके लिए विशेष व्यवस्था की है।’ दुर्योधन ने कृष्ण को निमंत्रित किया। इस पर कृष्ण को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन राजसभा में चर्चा से पूर्व वे दुर्योधन के आभारी नहीं होना चाहते थे। इसलिए उन्होंने स्पष्ट मना कर दिया- ‘मैं आपका निमंत्रण स्वीकार करने में असमर्थ हूँ, युवराज!’

सबके सम्मुख यह अस्वीकार सुनकर दुर्योधन आश्चर्य से भर गया। यह तो हस्तिनापुर के युवराज का स्पष्ट अपमान था। फिर भी अवसर के अनुकूल स्वयं को नियंत्रित करके दुर्योधन ने पूछा- ‘हमारा अन्न ग्रहण करने में आपको क्या आपत्ति है कृष्ण?’

‘युवराज, किसी अन्य का अन्न तब ग्रहण किया जाता है, जब या तो हमारे प्रति उनके मन में प्रेम हो या हमें अन्न की बहुत आवश्यकता हो। हम यह जानते हैं कि तुम्हारे मन में हमारे प्रति प्रेम नहीं है और हमें तुम्हारे अन्न की आवश्यकता भी नहीं है। मेरी बुआ यहाँ हैं, मैं उनके हाथ का साधारण भोजन करना ही उचित समझता हूँ।’ यह कहकर कृष्ण अतिथिशाला की ओर बढ़ गये।

कृष्ण के इस कथन का एक-एक शब्द दुर्योधन के सिर पर हथौड़े की तरह प्रहार कर रहा था। लेकिन खिसियानी हंसी हंसने के अलावा वह कुछ न कह सका।

(जारी…)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

4 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (तीसवीं कड़ी)

  • sangeeta kumari

    अच्छे लेख अच्छे कार्य के लिये आपको बंधाई विजय जी|

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत-बहुत धन्यवाद, संगीता जी.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , सभी चुप चुप जा रहे हैं दिल में हज़ारों तूफ़ान लिए . आगे किया होगा यही तो है सस्पेंस !!

    • विजय कुमार सिंघल

      सच है, भाई साहब. भगवान् श्री कृष्ण आगे क्या करते हैं यह देखना रोचक होगा. जय श्री कृष्ण !

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