उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (इकतीसवीं कड़ी)

कृष्ण के स्वागत से लौटते हुए दुर्योधन के मन में बहुत रोष था। वह अपने रोष का प्रदर्शन करना नहीं चाहता था, लेकिन उसे नियंत्रित कर पाने में भी असमर्थ था। उसके साथी शकुनि, कर्ण, दुःशासन आदि उनके मन की भावनाओं को अनुभव कर रहे थे। लेकिन मार्ग में कुछ कहकर वे उस रोष को भड़काना नहीं चाहते थे। इसलिए सभी मौन रहकर दुर्योधन के महल में लौट आये। वहां अपने बैठक कक्ष में पहुँचते ही दुर्योधन का रोष फूट पड़ा- ‘उस ग्वाले ने मेरा निमंत्रण अस्वीकार करके मेरा घोर अपमान किया है। मैं उसे छोड़ूंगा नहीं।’

‘यह केवल युवराज का नहीं, पूरे कुरुवंश का अपमान है।’ कर्ण ने उनकी हाँ में हाँ मिलायी।

शकुनि तत्काल उनको सांत्वना देने को आ गये- ‘शान्त, भानजे, शान्त हो जाइए। इसमें मान-अपमान की कोई बात नहीं है। यह उसकी चाल है।’

‘कैसी चाल, मामाश्री?’ कर्ण और दुःशासन ने एक साथ यह प्रश्न किया, जैसे दुर्योधन की ओर से पूछ रहे हों।

‘कृष्ण को यह बात ज्ञात है कि तुमने नकुल-सहदेव के मामा मद्रराज शल्य को धोखे से अपना अन्न खिलाकर अपने पक्ष में कर लिया है। शायद इसी संभावना से बचने के लिए उन्होंने तुम्हारा अन्न खाना अस्वीकार किया है।’

‘आपका सोचना सही हो सकता है, मामाश्री, लेकिन वह तो प्रकट रूप में पहले ही पांडवों के पक्ष में जा चुका है। अब वह हमारे पक्ष में कैसे आ सकता है?’ दुर्योधन ने पूछा।

‘यह बात नहीं है, युवराज! युद्ध से पहले और युद्ध के बीच में भी पक्ष परिवर्तन होते हैं, हो सकते हैं। इसकी सम्भावना पूरी तरह समाप्त करने के लिए ही उन्होंने तुम्हारी कोई कृपा स्वीकार करने से मना कर दिया है।’

‘जो भी हो, मामाश्री, मैं इसका मजा उसको जरूर चखाऊंगा। मैं उसकी इस यात्रा को सफल नहीं होने दूँगा।’

शकुनि को दुर्योधन की अधीरता का बहुत अनुभव था। इसलिए बोले- ‘इतनी शीघ्र किसी निर्णय पर मत पहुँचो, युवराज। पहले कृष्ण की बातें सुन तो लो कि वे क्या प्रस्ताव लाये हैं।’

‘कोई भी प्रस्ताव हो, मैं उसको कभी स्वीकार नही करूंगा। युद्ध होकर रहेगा।’

‘युद्ध तो होना ही चाहिए। अन्यथा अर्जुन को दंड देने का मेरा स्वप्न कैसे पूरा होगा। सभी पांडवों को नष्ट करने के लिए मेरे धनुष-वाण उद्यत हैं।’ दर्प के साथ कर्ण बोला।

‘तुम्हारा ही विश्वास है मुझे मित्र! तुम अकेले ही समस्त पांडव सेना का संहार कर सकते हो।’

‘अंगराज, अर्जुन भी कोई साधारण धनुर्धर नहीं है। उससे आपका संघर्ष दर्शनीय होगा। लेकिन अभी तो हम कृष्ण की बात कर रहे हैं।’

शकुनि की बात सुनकर सभी मौन रहे। उन्होंने सत्य बात कही थी। शस्त्र-रहित होने पर भी कृष्ण किसी भी अन्य योद्धा से अधिक शक्तिशाली थे और युद्ध के परिणाम को प्रभावित कर सकने में पूर्ण समर्थ थे।

‘युवराज, अभी तो हमें यह सोचना चाहिए कि हम किस प्रकार कृष्ण को इस युद्ध में सक्रिय भूमिका निभाने से रोक सकते हैं। अगर वे युद्धभूमि में भी पांडवों के साथ ही रहे, तो फिर हमारी विजय अनिश्चित है।’

यह सुनकर कक्ष में सन्नाटा छा गया। सभी कृष्ण के प्रभाव को अनुभव कर रहे थे और एक प्रकार से उनसे आतंकित थे। यदि युद्धभूमि में कृष्ण अर्जुन के साथ ही हुए, तो फिर उनको हराना लगभग असम्भव होगा। यह समस्या सबसे मस्तिष्क में गूंज रही थी। अन्ततः दुर्योधन ने सन्नाटा तोड़ा- ‘मामाश्री, क्या कृष्ण को किसी विधि से युद्ध क्षेत्र से दूर नहीं रखा जा सकता?’

दुर्योधन का यह प्रश्न सुनकर सब विचारों में डूब गये। कुछ देर बाद शकुनि ने कहा- ‘यह कार्य बहुत कठिन तो है, युवराज, परन्तु असम्भव नहीं। कृष्ण युद्धक्षेत्र से तभी अलग रह सकते हैं, जब वे किसी कारण से ऐसा करने को बाध्य हों। अन्यथा वे युद्धभूमि में भी सदा अर्जुन का साथ देंगे, इसकी पूरी संभावना है।’

‘अगर कृष्ण को बंदी बना लिया जाये, तो उनको युद्धक्षेत्र से अलग रखा जा सकता है।’

दुर्योधन की यह बात सुनकर सभी निराश हो गये।

‘यह असम्भव है!’ दुःशासन ने कहा।

‘इस बारे में कभी सोचना भी मत।’ यह कर्ण का स्वर था।

‘ठीक कहते हो अंगराज, कृष्ण ने यहां आने से पहले इस संभावना पर भी विचार अवश्य किया होगा। इसलिए वे अपने बचाव का पूरा प्रबंध करके आ रहे होंगे।’ शकुनि ने कुछ सोचकर कहा, ‘शस्त्रहीन होने पर भी उनका सुदर्शन चक्र अदृश्य रूप में सदा उनके साथ रहता है। पलक झपकते ही वह प्रकट हो जाता है और उसी प्रकार अंतर्ध्यान भी हो जाता है। राजसूय यज्ञ में उस चक्र ने शिशुपाल का सिर किस प्रकार काटा था, वह सबने देखा ही था।’

(जारी….)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

2 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (इकतीसवीं कड़ी)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , बहुत अच्छा परसंग जा रहा है . आप तो सब लिखेंगे ही लेकिन मेरे विचार में यही आ रहा है कि कृषण ने जान बूझ कर दुर्योधन का अतिथि भोजन असविकार किया होगा . डर तो उनको किसी का भी नहीं था लेकिन वोह जानते होंगे कि दयोधन इस बात से भड़क जाएगा और युद्ध हो कर ही रहेगा लेकिन कृषण के इस वार्तालाप से सांप भी मर जाए और सोटा भी बच जाए वाली बात हो जायेगी . इतहास में भी कृष्ण बेदाग़ रह जाएंगे और दरोप्ती की रंजिस भी दूर हो जायेगी .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब. मेरे विचार से कृष्ण ने इसीलिए दुर्योधन का अन्न खाना अस्वीकार किया था कि वे देख चुके थे कि किस तरह दुर्योधन ने शल्य को अपना अन्न धोखे से खिलाकर अपने पक्ष में कर लिया था. कृष्ण बहुत नीतिज्ञ थे.

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