लघु उपन्यास : करवट (पहली क़िस्त)
गाँव के पहरे पर बैठे हुए ग्राम देवता अपने मन्दिर में से सभी कहारों की बस्ती के रखवाले बनकर सदा कश्पा बनाये रहते थे। इसी कहरान (कहारों की बस्ती) में धनुवा कहार अपनी पत्नी रधिया और एक छोटे बच्चे रमुआ के साथ टूटी-फूटी झोंपड़ी में अपना घरौंदा बनाकर रहता था। भोर का तारा आकाश में चमके इससे पहले ही धनुवा अपनी चारपाई से रधिया को आवाज देता है- ‘उठ भिनसार हो गईल, बाबू साहब लोगन कै पनिया भरै के बेला हो गईल बा।’
धनुवा और रधिया नीम की टहनी तोड़कर दाँतुन अपने मुँह में डालकर चबाते हुए निकल पड़े। नित्य क्रिया करते हुए धान के खेतों की पगडंडी पर चलते हुए फिर एक बार हल्का सा कूदे और बरहा (खेतों में पानी लगाने के लिए नाली) को पकड़े-पकड़े टयूबवेल तक पहुँचकर कुल्ला किया। फिर मुँह धोकर धनुवा ने अँगोछे से और रधिया ने अपने पल्लू से अपने मुँह को पोंछा।
अपने गाँव की सरहद से दूर ठाकुरों और ब्राह्मणों के गाँव में पहँुच कर बाबू साहब लोगों के घरों में पानी भरने का काम करने लगे। धनुवा के कंधे पर रस्सी और दोनों हाथों में दो-दो बाल्टी और रधिया भी दोनों हाथों में बाल्टी लिए उसके पीछे-पीछे कुँए की जगत पर पहँुच गई। धनुवा ने बाल्टी को फन्दा लगा कर कँुए में रस्सी ढील दिया और फिर शुरू हुआ पानी भरने का सिलसिला। धनुवा पानी निकालता जाता और रधिया पानी को घर-घर में पानी पहुँचाती जाती थी। दोनों की मेहनत और ईमानदारी ने कई गाँवों के घरों में सबके दिल में घर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
एक गाँव के बाद दूसरे गाँवों का पानी भर रही थी तभी इस जोड़ी ने देखा कि सरपत की ओट से रमुवा अपनी आँखों को रगड़ता हुआ रोते-रोते चला आ रहा है। रधिया अपनी बाल्टी को रखकर बेटे रमुवा को पुचकारते हुए गोद में उठा लिया और चुप कराने लगी। रधिया जब अपना प्यार दुलार बेटे रमुवा के ऊपर उड़ेल रही थी तभी धनुवा ने आवाज लगायी- ‘अरे रधिया अब दुई बाल्टी रहि गईल है, इहौ पूर करि ल्यो, फिर घरहै चलै के बा।’
रधिया बेटे को कँुए के चबूतरे पर बैठाकर काम समाप्त करने में लग गयी। दो-तीन जोड़े पानी भरने के बाद दोनांे अपने गाँव की ओर सरपत की मेड़ी पकड कर चल दिए। धनुवा ने रमुआ को अपने कन्धे पर बैठा लिया। धनुवा गुनगुनाते हुए चला जा रहा था-
चुन मुन सोन चिरईया रे,
पक्की रमुआ की मड़ईया रे,
बूढ़ा, बुढ़िया बैठ दुअरिया रे,
ताकै रमुआ की रहिया रे।
रमुआ डाक्टर बाबू बनिकै
रोकिहै सबके बिमरिया रे।
रधिया ने बीच में ही टोकते हुए कहती है- ‘बाप भरत पानी मरि जाए, बेटवा बनिहै डाक्टर बाबू, हूँ रहैंदै बस।’
इस तरह नोंक झोंक करते हुए तीनों अपने घर तक कब आ गये पता ही नहीं चल पाया। घर पहँुच कर रधिया ने दरवाजे की कुण्डियों को खोला और धनुवा ने कमर सीधी करने के लिए चारपाई पकड़ ली। रधिया ने बटुली मांज कर साफ की और चूल्हे में लकड़ी जलाने के लिए पड़ोस में नन्दू के घर आग लाने चली गयी। रमुआ कभी बापू की पीठ पर, कभी पेट पर, कभी दोनो पैरों पर झूला झूलता, इस तरह वह शरीर पर कूदते हुए खेल रहा था। बापू की मेहनती जिन्दगी की थकान बेटे की उछल-कूद में काफूर (थकान दूर होना) हो जाती। थकान दूर होने की एक वजह यह भी थी कि रमुआ ही तो उसके सपनों का डाक्टर बाबू हैै।
अपनी गरीब जिन्दगी की इस दहलीज से अपने बेटे को डाक्टर के रूप में देखना भी उसके जीवन का वह क्षण था जो उसको पल-पल अज्ञात खुशी का अनुभव करा रहा था। यही पल थेे जो उसको अपनी सामाजिक लड़ाइयों में विजेता बनाते थे। रमुआ अपने बाबू के साथ खेलते-खेलते कब हमउम्र लड़कों के साथ खेलने लगा इसका धनुवा को पता ही न लगा, क्योंकि इसी बीच में धनुवा को झपकी आ गयी थी।
रधिया ने नन्दू के घर से आग लाकर अपनी भी रसोई में चूल्हा जलाया और बटुली में दाल पकाने के लिए रखकर आटा सानने लगी। आटा सानते हुए कुछ समय ही बीता था कि दाल में उबाल आ गया। रधिया ने आटा लगे हुए हाथों से ही कलछुल से दाल को चलाया, फिर एक कटोरे में पानी भरकर दाल को ढक दिया और आटा सानने लगी। दाल के पकने पर कटोरे का पानी भी दाल में डाल दिया और दाल को उतार करके नीचे रख रोटी सेंकने का तवा चढ़ा दिया। रमुआ दौड़ता हुआ आया और रधिया की पीठ पर से लटकते हुए खाना माँगने लगा। रधिया ने बेटे को आटे की लोई दे दी और बोली- ‘रमुआ तू आपन चिरइया वाली रोटी बनवा तबले हम तोहकै खाना देत हई।’ रमुआ अपनी आटे की गोल-मोल सी लोई बनाने में लग गया।
जारी…
सलाह पर गौर किया जा रहा है। विजय सिंघल जी
धन्यवाद कमल जी
वाह मनोज जी, बहुत उम्दा .
vijay ji ko pranam,
upanyas ko naya ayam deney ke liye dhanyvad
स्वागत है, मनोज जी, कमेंटों के उत्तर हिंदी में देने की कोशिश कीजिये.
उपन्यास की पहली किस्त अच्छी लगी।