कविता

॥ स्त्री और समुद्र॥

stri udas

वह हर शाम आती है 
अकेली और उदास
सुनने मेरा कोलाहल
कहने अपने मन की बात
हम घंटों बतियाते हैं,
पागलों की तरह
वह मानती है मुझे अपना दोस्त!

उसकी जेब में होता है
एक पुराना रूमाल
जिससे चिपकी है
उसके प्रेमी के आँसुओं की गंध
उसने बताया था
वह रोया था एक दिन
बिना कुछ कहे
शायद वैसे ही
जैसे बरसता है कोई बादल
धूप में, चुपचाप
और गीली भी नहीं होती धरती!

वह आत्मीयता से बैठती है
मेरी लहरों के करीब
और देखने लगती है साँझ का सूरज
उसकी आँखों में चमकते हैं
दुख की रौशनाई से लिखे
कितने ही छंद
जिन्हें पढ़ते हुए हम रोते हैं
साथ साथ

मूर्छित होकर
तेज़ी से गिरता है सूरज
और लाल हो जाती है
आसमान की आँख

वह लौटती है अपने घर की ओर
करीने से सम्भालते हुए
रूमाल में बंधा
अपना पुराना दुख

मैं उससे कह भी नहीं पाता
मेरा भी एक दुख है
तुम्हारे ही दुख-सा
जिसे मैं भूल जाता हूँ
तुम्हारी उपस्थिति में
या तुम्हारे आने की प्रतीक्षा में

मैं जानता हूँ—
स्त्री और समुद्र के दुख
कभी खत्म नहीं होते इस सृष्टि में
वे भटकते ही रहते हैं
अंधेरे उजाले के साथ!

——– राजेश्वर वशिष्ठ

2 thoughts on “॥ स्त्री और समुद्र॥

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    बेहद खुबसूरत तुलना ….. रचना दिल को छू गई

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर कविता.

Comments are closed.