उपन्यास : शान्तिदूत (चौंतीसवीं कड़ी)
अगले दिन प्रातःकाल कृष्ण और सात्यकि नित्यकर्मों से निवृत्त हुए। फिर राजसभा में जाने के लिए तैयार होने लगे। वहां जाने से पहले कृष्ण ने सात्यकि को एक बार पुनः स्मरण कराया कि उनको राजसभा के भीतर नहीं जाना है, बल्कि उस कक्ष के मुख्य द्वार पर ही रहकर सावधान और सजग रहना है।
कृष्ण ने कहा- ‘सात्यकि, आज की राजसभा बहुत महत्वपूर्ण है। इससे आर्यावर्त का इतिहास बदल सकता है। इसमें तुम्हारी भूमिका भी महत्वपूर्ण है। जिस उद्देश्य से मैं तुम्हें अपने साथ लाया हूं, वह उद्देश्य पूरा करने का क्षण आ गया है।’
सात्यकि के मुख पर चमक आ गयी। उन्होंने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा- ‘भैया बताइये मुझे क्या करना है?’
‘तुम राजसभा के मुख्य द्वार के बाहर ही रहोगे। क्षणभर के लिए भी इधर-उधर मत होना।’
‘हूं। और?’
‘और यह कि राजसभा में आने-जाने वालों पर दृष्टि रखोगे। अगर कोई संदिग्ध व्यक्ति राजसभा में आता-जाता दिखायी पड़े तो मुझे तत्काल सूचित करोगे।’
‘अच्छा, लेकिन मैं आपको सूचित कैसे करूंगा, क्योंकि भीतर तो जाऊंगा नहीं।’
‘इसके लिए हम कुछ संकेत तय कर लेते हैं। अगर कोई संदिग्ध व्यक्ति राजसभा में भीतर जाता हुआ दिखायी दे, तो तुम मुझे इस तरह खांसकर संकेत दोगे।’ यह कहते हुए कृष्ण ने उनको खांसने की विशेष ध्वनि बता दी और सात्यकि से उसका अभ्यास भी करा दिया।
‘इसके अतिरिक्त यदि तुम वहां कोई खतरा देखो, तो उसी तरह लगातार दो बार खांसकर मुझे संकेत करोगे।’
‘मैं भली प्रकार समझ गया भैया। आप निश्चिन्त रहिये। मैं अपनी आंखें और कान सभी खुले रखूंगा।’
‘तुम बुद्धिमान हो सात्यकि। और यह मत भूलना कि अगर राजसभा में मुझे कुछ हो जाता है, तो यादव सेना के सेनापति तुम ही रहोगे और उसका कोई भी उपयोग करने के लिए स्वतंत्र होगे।’
‘बहुत अच्छा, भैया। आप आश्वस्त रहिये कि मैं अपना कर्तव्य भली प्रकार कर लूंगा। मैं वीरवर अर्जुन का शिष्य और आपका अनुयायी हूं।’
इस प्रकार सभी बातें निश्चित करने के बाद दोनों राजसभा की ओर चले। राजसभा का समय हो गया था और उसमें कृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा की जा रही थी।
जैसे ही वे राजसभा के द्वार पर पहुंचे, वैसे ही वहां से रक्षकों ने उनको सम्मानपूर्वक प्रणाम किया और उनके लिए रास्ता छोड़ दिया। कृष्ण उनके प्रणाम को सिर हिलाकर स्वीकार करते हुए सधे हुए पगों से भीतर प्रवेश कर गये।
रक्षकों का अनुमान था कि कृष्ण के साथ सात्यकि भी भीतर जायेंगे, परन्तु उनको यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सात्यकि बाहर ही रुक गये और रक्षकों के पास ही इस स्थिति में खड़े हो गये कि राजसभा के मुख्यद्वार के साथ ही भीतर का कुछ दृश्य भी दिखायी देता रहे।
रक्षकों ने उनसे पूछा- ‘आप राजसभा में क्यों नहीं जा रहे हैं, श्रीमान्?’
सात्यकि ने कहा- ‘राजसभा में केवल भगवान वासुदेव को बुलाया गया है। वहां मेरा कोई काम नहीं है। इसलिए मुझे बाहर ही रहने का आदेश मिला है।’ इस पर रक्षक संतुष्ट हो गये। उन्होंने एक चौकोर आसन रखकर सात्यकि के बैठने की व्यवस्था करने के लिए कहा, परन्तु सात्यकि ने कहा कि मैं खड़ा ही रहूंगा। रक्षकों ने आगे और कोई प्रश्न नहीं पूछा और अपने कर्तव्य में लग गये।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , अब यह डिप्लोमेसी की शुरुआत दिखाई दे रही है . दिलचस्प होती जा रही है . धन्यवाद .
भाई साहब, भगवान् श्रीकृष्ण को कूटनीतिज्ञों का शिरोमणि माना जाता है.