उपन्यास : शान्तिदूत (पेंतीसवीं कड़ी)
कृष्ण के आने से पहले ही राजसभा में सभी लोग उपस्थित हो गये थे और अपने-अपने स्थान पर बैठे थे। कृष्ण के लिए एक आसन प्रमुख स्थान पर रिक्त रखा गया था। जैसे ही कृष्ण राजसभा में आते हुए दिखायी दिये वैसे ही वहां उपस्थित सभी लोग उनके सम्मान में खड़े हो गये। केवल महाराज धृतराष्ट्र खड़े नहीं हुए। कृष्ण ने अपने आसन के निकट जाकर सबको बैठने का संकेत किया, फिर महाराज धृतराष्ट्र की ओर मुख करके बोले- ‘महाराज, मैं यादव प्रमुख वसुदेव का पुत्र कृष्ण आपको प्रणाम करता हूं।’
उनकी मधुर वाणी को सुनकर धृतराष्ट्र का मुखमंडल खिल गया। बोले- ‘स्वागत है वासुदेव! आपके आगमन से हस्तिनापुर धन्य हो गया। आप सकुशल तो हैं?’
‘आपके आशीर्वाद से मैं सकुशल हूं, महाराज!’ कृष्ण ने उसी मधुर स्वर में उत्तर दिया।
तभी महामंत्री विदुर ने महाराज धृतराष्ट्र के कान में बताया कि कृष्ण अभी तक खड़े ही हैं। इस पर धृतराष्ट्र ने कहा- ‘अपना आसन ग्रहण कीजिए, वासुदेव। फिर अपने आगमन का उद्देश्य कहिए।’
‘धन्यवाद, महाराज!’ कहकर कृष्ण ने अपना ग्रहण किया। फिर सभा में सभी पर एक दृष्टि डालकर महाराज को सम्बोधित करके बोले- ‘मैं उपप्लव्य नगर से महाराज युधिष्ठिर की ओर से शान्ति का प्रस्ताव लेकर आया हूं।’ बिना किसी भूमिका के उन्होंने अपने आगमन का उद्देश्य स्पष्ट कर दिया। यह सुनकर राजसभा में सन्नाटा छा गया। फिर धृतराष्ट्र ही बोले- ‘मेरे अनुज पांडु के सभी पुत्र कुशल तो हैं न, केशव?’
‘सभी कुशल हैं महाराज ! उन्होंने आपको और सभी वरिष्ठ जनों को अपने प्रणाम निवेदित किये हैं।’
‘उनको मेरे आशीर्वाद देना, वासुदेव!’ औपचारिक रूप से धृतराष्ट्र ने कहा। उनके स्वर से स्पष्ट था कि पांडवों का उल्लेख उनको लेशमात्र भी अच्छा नहीं लगा है।
‘महारानी द्रोपदी ने भी आपको और सभी गुरुजनों सहित इस राजसभा के सभी सभासदों को अपना प्रणाम निवेदित किया है, महाराज!’
कृष्ण का स्वर स्पष्टतया व्यंग्यपूर्ण था, जिसको धृतराष्ट्र सहित सभी सभासदों ने स्पष्ट अनुभव किया। कृष्ण ने इस वाक्य द्वारा उन सबको याद दिला दिया था कि तेरह वर्ष पूर्व इसी राजसभा में महारानी का सार्वजनिक रूप से घोर अपमान किया गया था, जिसको उन्होंने अभी तक न भुलाया है और न क्षमा किया है। यह सोचकर सभी सभासदों का सिर लज्जा से झुक गया। कृष्ण ने पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य की ओर दृष्टिपात किया, तो वे पृथ्वी की ओर ताकते दिखाई पड़े। यह कहना कठिन था कि उनके मन में उस समय क्या चल रहा होगा।
धृतराष्ट्र ने भी कृष्ण के स्वर में छिपे व्यंग्य को स्पष्ट अनुभव किया। वे केवल इतना कह सके- ‘द्रोपदी को मेरा आशीर्वाद कहना, कृष्ण!’
‘अवश्य, महाराज ! आपका आशीर्वाद ही पांचाली का एकमात्र अवलम्बन है।’ कृष्ण के स्वर में व्यंग्य एक बार पुनः स्पष्ट था। इसे सुनकर सभासद एक बार पुनः असहज हो गये। धृतराष्ट्र जैसे लज्जा से गढ़ ही गये। वे द्रोपदी का उल्लेख करने से यथासम्भव बचना चाहते थे। उनको अपने इस अपराध का स्पष्ट बोध था कि हस्तिनापुर के सिंहासन पर विराजमान होकर उन्होंने अपनी ही कुलवधू के साथ न्याय नहीं किया था। उनकी यह कर्तव्यहीनता ही अब कुरुवंश के सिर पर विनाश के बादल बनकर छायी हुई थी।
विषय परिवर्तन के लिए उन्होंने कहा- ‘वासुदेव ! जिसको आपका अवलम्बन है, उसे और किसी के अवलम्बन की आवश्यकता नहीं है।’
दुर्योधन को कृष्ण द्वारा भरी राजसभा में द्रोपदी का बार-बार उल्लेख करना अच्छा नहीं लगा। उसके मन में भी अपराध बोध था। इसलिए अपने पिता को लज्जापूर्ण स्थिति से निकालने के लिए वे खड़े हो गये और सीधे कृष्ण को सम्बोधित करते हुए जोर से बोले- ‘वासुदेव, आप बार-बार द्रोपदी का उल्लेख क्यों कर रहे हैं? आप यहां प्रस्ताव लेकर आये हैं या व्यंग्य करने? आप जो प्रस्ताव लेकर आये हैं, उसे प्रस्तुत कीजिए।’
कृष्ण ने दुर्योधन की बात को सुना, लेकिन उसको सीधे उत्तर नहीं दिया। बल्कि महाराज को ही सम्बोधित करते हुए बोले- ‘महाराज, अब मैं पांडवों द्वारा प्रेषित प्रस्ताव को आपके समक्ष प्रस्तुत करूंगा।’
कृष्ण की यह बात सुनकर सभी सभासद पूर्णतः ध्यान से कृष्ण की बात सुनने के लिए उत्सुक हो गये।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , कृष्ण ने दर्पति का ज़िकर तो जानबूझ कर ही किया होगा ताकि दुर्योधन को उन के पाप हिला कर रख दें और वोह गुस्से में आ जाए और लड़ाई के लिए तैयार हो जाए . लड़ाई तो अब हो कर ही रहनी थी किओंकि जिस शख्स ने द्रोपती को भरी सभा में बेईज़त कर दिया हो उस से और किया शान्ति की आशा राखी जा सकती थी . ध्रित्राश्टर तो विचारा बूडा अँधा और बेटे से डरने वाला , किया कर सकता था ! ऐसे हालात में भरी सभा में वातावरण कैसा होगा , आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है. शकुनी और करण जैसे गर्म और विदुर द्रोनाचार्यिया और पितामह जैसे बेसहाए लोगों की किया ताकत होगी . ऐसे हालात में बातचीत किया होगी ?
सही समझा है आपने भाई साहब. कृष्ण को इसीलिए श्रेष्ठ कूटनीतिज्ञ कहा जाता है. उनका एक एक शब्द नपा तुला और सार्थक होता था. जय श्री कृष्ण.