उपन्यास : शान्तिदूत (सेंतीसवीं कड़ी)
दुर्योधन की यह गर्वोक्ति सुनकर कृष्ण क्रोधित नहीं हुए, बल्कि दयनीय दृष्टि से दुर्योधन की ओर देखा और मंद-मंद मुस्कराते हुए बोले- ‘युवराज, आपने और आपके योद्धाओं ने हाथों में क्या पहन रखा है और क्या नहीं, यह तो विराट नगर में दिखायी दे गया था, जब अकेले अर्जुन ने समस्त कौरव सेना को परास्त कर दिया था और उनके अंगवस्त्र तक उतार लिये थे।’
कृष्ण की यह बात सुनकर दुर्योधन के तन-बदन में आग लग गयी। गुर्राकर बोला- ‘ज्यादा डींगें मत हांकिये, वासुदेव, उस युद्ध में हम अच्छी तरह तैयार होकर नहीं गये थे।’ फिर उसने कर्ण की ओर संकेत करते हुए कहा- ‘मेरे यह मित्र अंगराज कर्ण ही समस्त पांडवों को धूल चटाने में समर्थ हैं।’
कृष्ण के चेहरे पर फिर एक और व्यंग्यात्मक मुस्कान आ गयी। ‘आपके इन महावीर की वीरता तो गंधर्वों के साथ हुए युद्ध में दिखायी दे गयी थी, जब वे आपको बँधा हुआ छोड़कर भाग खड़े हुए थे। आप भूल रहे हैं कि तब आपको पांडवों ने ही मुक्त कराया था।’
भरी राजसभा में दुर्योधन और कर्ण के ऊपर यह व्यंग्य दुःशासन को सहन नहीं हुआ। वह खड़ा होकर जोर से बोला- ‘आप युवराज का अपमान कर रहे हैं, वासुदेव!’
‘मैं किसी का अपमान नहीं कर रहा हूँ, राजकुमार! मैं केवल एक तथ्य बता रहा हूँ। शान्त हो जाइए और अपने युवराज को भी शान्त होकर इस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए कहिए।’ कृष्ण ने मधुर वाणी में उत्तर दिया। इस पर दुर्योधन, दुःशासन आदि सभी शान्त होकर बैठ गये।
अभी तक धृतराष्ट्र कृष्ण और दुर्योधन की वार्ता को मौन होकर सुन रहे थे। चुप्पी तोड़ने के लिए वे बोल उठे- ‘वासुदेव, आपके इस प्रस्ताव में नया क्या है? हम इसको पहले ही लौटा चुके हैं।’
‘महाराज, इस प्रस्ताव में नया यह है कि मैं यह मानता हूँ कि इस राजसभा में न्यायकारी व्यक्तियों का बाहुल्य है। इसलिए मुझे आशा है कि आप शान्तिपूर्वक विचार करके पांडवों के साथ न्याय करेंगे।’
यह सुनते ही धृतराष्ट्र का मुखमंडल मलीन हो गया। किसी तरह बोले- ‘आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, वासुदेव? क्या हमने पांडवों के साथ कभी अन्याय किया है?’ उनके स्वर में क्षीणता स्पष्ट नजर आ रही थी और वे उस व्यक्ति जैसे दिखाई दे रहे थे, जिसको दर्पण दिखाकर उसके चेहरे पर लगे कलंक को दिखा दिया गया हो।
‘दुर्भाग्य से आपके इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ में है, महाराज! मुझे तो यह लगता है कि प्रारम्भ से ही पांडवों के साथ अन्याय किया गया है और यह राजसभा उस अन्याय को रोकने में असमर्थ रही है।’
कृष्ण की यह बात सुनते ही सारी राजसभा में कानाफूसी होने लगी।
पितामह भीष्म अभी तक चुपचाप बैठे सभा की कार्यवाही देख रहे थे। अब वे चुप न रह सके। उनका चेहरा तमतमा रहा था। वे बोले- ‘केशव, क्या आप अपनी बात को स्पष्ट करेंगे? हमने कब पांडवों के साथ अन्याय किया है?’
कृष्ण ने उनको उत्तर देने में देर नहीं लगायी- ‘पितामह, हस्तिनापुर के बंटवारे के समय उनके साथ न्याय नहीं किया गया था। पांडु के सबसे बड़े पुत्र और कुरुवंश में भी ज्येष्ठ होने के नाते युधिष्ठिर सम्पूर्ण राज्य के अधिकारी थे। परन्तु उनको आधा राज्य देकर हस्तिनापुर से निष्कासित कर दिया गया। क्या यह अन्याय नहीं था? उनको घोर जंगल में जाकर रहने के लिए कह दिया गया, क्या वह न्याय था?’
‘वासुदेव, हमने पांडवों और महाराज के पुत्रों की बीच संघर्ष को टालने के लिए साम्राज्य का विभाजन स्वीकार किया था।’
‘तो अब उसी तरह के संघर्ष को टालने के लिए पांडवों को उनका इन्द्रप्रस्थ देना स्वीकार कर लीजिए, पितामह!’
कृष्ण की बात सुनकर भीष्म ने असहाय और असमर्थ व्यक्ति की तरह की मुद्रा बनायी और मौन होकर बैठ गये। कृष्ण ने उनको भी यह अनुभव करा दिया था कि इस अन्याय में वे भी शामिल थे और इसको रोकने में असफल रहे थे।
भीष्म के बैठते ही द्रोणाचार्य खड़े हो गये और बोले- ‘वासुदेव, युधिष्ठिर ने उस विभाजन को स्वीकार कर लिया था। अब उसको स्मरण करने का क्या अर्थ है?’
‘यह तो उनकी सज्जनता और सदाशयता थी, आचार्य! इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके साथ अन्याय नहीं हुआ था। उन्होंने साम्राज्य के हित में और संघर्ष टालने के लिए ही इस अन्याय को स्वीकार कर लिया था.’
‘पुरानी बातों को छोड़िए, वासुदेव और वर्तमान की बात कीजिए।’
‘वर्तमान की ही बात कर रहा हूँ, आचार्य! मैं नहीं चाहता कि पांडवों के साथ फिर कोई अन्याय हो, इसीलिए उनकी ओर से यह प्रस्ताव लेकर आया हूँ। मुझे आशा है कि इस बार यह राजसभा उनके साथ अन्याय नहीं होने देगी।’
इस पर द्रोणाचार्य भी शान्त होकर बैठ गये। लेकिन धृतराष्ट्र चुप नहीं रह सके। कुछ रोष में भरकर बोले- ‘वासुदेव, आप बार-बार हमारी न्यायप्रियता पर सन्देह क्यों कर रहे हैं?’
‘मेरा सन्देह निराधार नहीं है, महाराज! उसके लिए पर्याप्त आधार है।’ कृष्ण ने अपने प्रत्येक शब्द पर जोर देकर कहा।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , कृष्ण ने दिल खोल कर खरी खरी बातें कर दीं. दुर्योधन तो गुस्से और अपनी ताकत में अँधा हो चुक्का था लेकिन बाकी सब उस से डरते और दब्बे हुए थे . और शकुनी कर्ण और दुहसासन की तो समझ आतीं है लेकिन पितामह विदुर और द्रोनाचारिया जैसे लोग दुर्योधन के विरुद्ध कियों नहीं जोर से बोल सके ? यह कौन सा धर्म संकट है कि अनिआए के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाना . इस वार्तालाप से एक बात का तो रास्ता साफ़ हो गिया कि अब लड़ाई के बगैर कोई फैसला होना असंभव हो गिया .
सही कहा भाई साहब. भीष्म और द्रोणाचार्य दोनों की बुद्धि दुर्योधन का पाप का अन्न खाकर भ्रष्ट हो गयी थी. आगे देखते जाइये कि कृष्ण किस तरह उनको खरी खरी सुनाते हैं.